Monday, December 3, 2007

समृद्ध और खुश-हाल भारत

हाथी के दांत खाने के अलग और दिखाने के अलग होते हैं। यह बात समृद्ध और खुश-हाल भारत पर भी लागू होती है। एक तरफ़ हैं विप्रो के अज़िम प्रेमजी और रिलाएन्स का अम्बानी परिवार, दूसरी ओर हैं आत्महत्या करते हुए किसान। एक तरफ़ हैं कोक और पेप्सी, दूसरी ओर है पीने के पानी को तरसती हुई ग्रामीण जनता। असलियत यही है कि बावजूद इतनी तरक्की के आज भी भारत में कामयाब वही समझा जाता है जो देश छोड कर विदेश में धन अर्जित करता है। गांधी जी को सम्बोधित करते हुए मैंने लिखा है -
'भारत छोड़ो आन्दोलन हुआ है अब कामयाब,
मेरे वतन में एक भी होनहार नौजवां नहीं मिलता
'।   भारत छोड़ने की मेरी इच्छा कतई नहीं थी। हालांकि, मेरे पिता 1966 में इंग्लैंड जा भी चुके थे और 3 साल में पी-एच-डी ले कर आ भी गए थे। मैं 1986 में बनारस से इंजीनियरिंग खत्म कर चुका था और हाथ में एक सरकारी नौकरी भी थी। विदेश जा कर दर-दर की ठोकरे खाने में कोई तुक नहीं दिखाई दे रहा था। मैं आरामपसंद व्यक्ति हूँ। मेरे विचार में स्नातकोत्तर शिक्षा से आज तक किसी का भला नहीं हुआ है।
'कितनी निराली है शिक्षा प्रणाली,
'पास' होते होते सब दूर हो गए'।
  मेरे मामा मेट्रिक पास थे और अपने परिवार के हमेशा पास थे। उनके साथ मैंने कई सुखद गर्मी की छुट्टीयां बितायी है रुनखेड़ा में, जहां वे स्टेशन मास्टर थे। एक बार मुझसे 5 वीं कक्षा में पूछा गया था, क्या बनोंगे बड़े हो कर? मैंने कहा था, "स्टेशन मास्टर!"   बहरहाल, क्लाँस के सब साथी अमेरिका जा रहे थे सो मैं भी निकल पड़ा। और अगले चार साल तक मास्टर्स और एम-बी-ए के दौरान कई पापड़ बेले। मगर कहीं भी कड़वाहट महसूस नहीं हुई, अमेरिका में सब जगह खूब स्नेह मिला। दिक्कत थी तो बस एक कि भारत में सब कुछ बना-बनाया मिल जाता था। घर पर माँ थी और बनारस के होस्टल में महाराज था। यहाँ खुद ही दाल-रोटी बनाओ। बर्तन भी मांजो। कपड़े भी धोओ। झाडू फटका भी करो। 'चले थे बड़ी धूम से बादशाह बनने,
काम काज में फ़ंसे मज़दूर हो गए'
और ये सिलसिला अभी भी जारी है। बड़े से बड़े ओहदे वाला व्यक्ति खुद कार चलाता है, खुद सब्जी-भाजी खरीदता है, खुद कपड़े धोता है, खुद की चाय-काँफ़ी बनाता है, खुद झाड़ू-फ़टका करता है और खुद खाना भी बनाता है। हालांकि मशीनों - वाँशिंग मशीन, वैक्यूम क्लीनर - से आसानी जरूर हो जाती है। पर घर या दफ़्तर में कोई सेवा में हाज़िर नौकर नज़र नहीं आता है।   मैंने भारत में इन्जीनियरिंग की पढ़ाई अवश्य अंग्रेज़ी में की थी। मगर अंग्रेज़ी में कभी वार्तालाप नहीं किया था। अमेरिका में पेट पूजा के लिए कंप्यूटर प्रोग्रामिंग पढ़ाने लगा विश्वविध्यालय में। जाहिर है अंग्रेजी में ही पढ़ाना था। यह मेरे लिए एक गर्व की बात थी कि जिसने 5 वीं कक्षा तक ए बी सी डी तक नहीं सीखी थी, आज 20-25 अमरीकी नवयुवकों को उनकी ही भाषा में एक नई भाषा (पास्कल) सीखा रहा था। और मुझे अपने छात्रों से यथोचित सम्मान भी मिला। और तब मुझे शर्म आई यह सोच कर कि किस तरह हम नए अध्यापक का मज़ाक उड़ाया करते थे बनारस में।   ग्लानि इस बात की हमेशा रही कि 7 हज़ार मील की दूरी के बहाने से घर की सारी जिम्मेदारीयों से हाथ धो लिया। न किसी की शादी में शामिल हुए न किसी की बरसी में। न किसी के लिए नौकरी की सिफ़रिश की और न किसी की दवा-दारु की।  माँ की टक्कर हो गई थी स्कूटर से। कमर में काफ़ी चोट आई। बिस्तर पर रही हफ़्तों तक। मैं यहाँ टी-वी पर देखता रहा डायना और मदर टेरेसा का अंतिम सफ़र। फ़ोन से बातचीत जरुर होती थी। पर फ़ोन पर किसी को गले नहीं लगाया जा सकता। कंधे पर सर नहीं रख सकते। निगाहें नीची कर के थोड़ी देर चुप नहीं रह सकते। माँ माथे को चूम नहीं सकती। बालों को सहला नहीं सकती। गला भर आने पर पानी का ग्लास नहीं दे सकती।   सच! कितनी त्रासदी है एक एन आर आई के जीवन में।
'जब हम अपनों के नहीं हुए,
तो किसी और के क्या होंगे,
पूछ लो किसी भी कामयाब से,
किस्से यहीं बयां होंगे'
 
21 साल से यहाँ हूं। तब से आज तक यही सुनता आया हूँ - 'मेरा भारत महान'।
'परदेस में बस जाने के बाद,
चर्चे वतन के मशहूर हो गए'



'भारत बहुत तरक्की कर रहा है।' 'अमेरिका अपने आप को असुरक्षित समझ रहा है।' 'यहाँ की नौकरियाँ धीरे-धीरे बैंगलोर और हैदराबाद जा रही है।' आदि, आदि। इस वजह सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में अमरीकी कर्मचारीयों के पेट पर सीधा-सीधा वार हुआ है। जाहिर है उन्हें ये कतई पसंद नहीं है। कुछ राज्य सरकारों ने इसी कारण ये निर्णय लिया है कि वे किसी भी एसी संस्था को काम नहीं देंगे जिसके संबंध भारत की कंपनी से हैं। हालांकि इस निर्णय से खास फ़र्क नहीं आया है। चूंकि ये गिने-चुने राज्य तक ही सीमित है। नौकरियाँ तो जा ही रही हैं भारत की ओर, पर भारत से अब भी हज़ारो की तादात में नवयुवक आ रहे हैं। पहले वो आते थे उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए अपनी योग्यता के बल पर। आज आते हैं विप्रो, इन्फ़ोसिस आदि की छत्र-छाया में। वे आते हैं सस्ती दरों पर वही काम करने जिसे अमरीकी नागरिक कर रहा था महंगी दरों पर। तो जाहिर है, ऐसे भारतीय कर्मचारी अमरीकी जनता का सम्मान पाने में असमर्थ रहते हैं। पर इस वजह से कंपनी की बचत होती है और बहुत मुनाफ़ा। वाँल-स्ट्रीट भी खुश। अब आप सोच रहे होंगे कि चलो कम से कम कंपनी के मालिक तो इन भारतीय कर्मचारीयों की इज़्ज़्त करते होंगे। लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। जैसे कि आप घर बना रहे हैं और आपको मजदूर चाहिए जो ईंट, पत्थर, गारा उठा सके, मिला सके, और दीवारें खड़ी कर सके। ये काम आपके शहर के लोग कर सकते है 100 रुपये में और दूसरी तरफ़ हैं दूसरे शहर के लोग जो यह काम कर सकते हैं 70 रुपयें में। आप दूसरे शहर के कर्मचारियों से काम करा के 30 रुपये बचाएंगे जरूर मगर आप की नज़रों में उनकी इज़्ज़त नहीं बड़ जाएंगी। काम खत्म हुआ और आप अपने रस्ते और वो कर्मचारी अपने रस्ते पर। सम्मान अर्जित करने के लिए कुछ नया होना चाहिए। बजाए इसके कि आप कोई भी काम पूरा करने के लिए एक सस्ते मज़दूर की तरह हाज़िर हो जाएं। अगर आप इस घर की रूपरेखा तैयार करने वाले आँर्किटेक्ट हैं और आपका काम बहुत बेहतरीन है, तब स्वाभाविक है कि आपको प्रचुर सम्मान मिलेंगा। पिछले 10 साल में जो भारत के विकास की बात अमेरिका तक पहुँच रही है वो साँफ़्टवेयर सेवा तक ही सीमित है। और इस क्षेत्र में भारत एक सस्ते मज़दूर के रूप में देखा जा रहा है। एक मजे की बात और कि विप्रो, इन्फ़ोसिस की बदौलत अब भारत में साँफ़्टवेयर क्षेत्र में वेतन स्तरों में प्रचुर वृद्धि हुई है। इस कारण काफ़ी भारतीय जो अमरीका में बस गए थे अब भारत वापसी की तैयारी कर रहे हैं। रोज सुनने में आता है कि फलाना हिन्दुस्तान जा रहा है उस कंपनी में डायरेक्टर बन कर तो इस कंपनी में मैनेजर बन कर। मगर दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। भई सच पूछो तो अमेरिका में भेद-भाव है और उपर से झेलने अनगिनत उतार-चढ़ाव हैं जो नौकरी आज है वो कल नहीं चिन्ता रहती है हर पल यही अब तो भारत में भी नौकरिया ढेर हैं और मां-बाप के भी कबर में पैर हैं सोचता हूँ हिन्दुस्तान में बस जाऊँ बस पहले अमेरिकन सिटिज़न बन जाऊँ हर महफ़िल में हर आदमी इस बात की घोषणा करता है कि वो भारत का शुभचिंतक है। मेरा ये विचार है कि भारत का विकास हो, सम्पन्न हो खुशहाल हो, रोजी-रोटी सबके पास हो, सुनते ही कि डाँलर गिर गया, सारा बुखार उतर गया  अंत में निष्कर्ष यही कि हम यहाँ के रहन-सहन के, तौर-तरीको के और ज़रुरतों के आदि हो गए हैं। और डॉलर चाहे कितना भी गिर जाए उसकी खरीदी क्षमता दुनिया की बाकी मुद्राओ से ज्यादा ही रहेगी। यहाँ आदमी एक साल के वेतन में वो सब खरीद सकता है जिसे अन्य देशों के नागरिक कई सालों की कमाई में भी नहीं पा सकते है। पहले हम अपना भविष्य सुधारने आए थे। अब हम अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखना चाहते हैं। पहले मैं कहता था कि हम अभिमन्यू की तरह चक्रव्यूह में घुस तो गए हैं पर निकलने में असमर्थ हैं। अब लगता है कि ये कैंसंर की तरह एक ला-ईलाज मर्ज़ है। बाबुल चाहे सुदामा हो ससुराल चाहे सुहाना हो नया रिश्ता जोड़ने पर अपना घर छोड़ने पर दुल्हन जो होती है दो आँसू तो रोती है और इधर हर एक को खुशी होती है जब मातृभूमि संतान अपना खोती है क्यूं देश छोड़ने की इतनी सशक्त अभिलाषा है? क्या देश में सचमुच इतनी निराशा है? जाने कब क्या हो गया वजूद जो था खो गया ज़मीर जो था सो गया लकवा जैसे हो गया भेड़-चाल की दुनिया में देश अपना छोड़ दिया धनाड्यों की सेवा में नाम अपना जोड़ दिया अपनी समृद्ध संस्कृति से अपनी मधुर मातृभाषा से मुख अपना मोड़ लिया माँ बाप का दिया हुआ नाम तक छोड़ दिया घर छोड़ा देश छोड़ा सारे संस्कार छोड़े स्वार्थ के पीछे-पीछे कुछ इतना तेज दौड़ें कि न कोई संगी-साथी है न कोई अपना है मिलियन्स बन जाए यही एक सपना है करते-धरते अपनी मर्जी हैं पक्के मतलबी और गर्जी हैं उसूल तो अव्वल थे ही नहीं और हैं अगर तो वो फ़र्जी हैं पैसों के पुजारी बने स्टाँक्स के जुआरी बने दोनों हाथ कमाते हैं फिर भी क्यूं उधारी बने? किसी बात की कमी नहीं फिर क्यूं चिंताग्रस्त हैं? खाने-पीने को बहुत है फिर क्यूं रहते त्रस्त हैं? इन सब को देखते हुए उठते कुछ प्रश्न हैं पैसा कमाना क्या कुकर्म है? आखिर इसमें क्या जुर्म है? जुर्म नहीं, यह रोग है विलास भोगी जो लोग है 'पेरासाईट' की फ़ेहरिश्त में नाम उनके दर्ज हैं पद-पैसो के पीछे भागना एक ला-इलाज मर्ज़ है

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3 comments:

Rama said...

डा. रमा द्विवेदी said...

राहुल जी ,

आज आपके ब्लाग पर आना हुआ...बहुत अच्छा लिखते हैं आप। ईकविता पर भी आपको पढ़ती रहती हूं पर हर बार प्रतिक्रिया देना संभव नहीं हो पाता।
आप हमेशा कुछ नया ,नए अंदाज़ में कहते हैं..आप ऐसे ही लिखते रहें इसी कामना के साथ....अनेक शुभकामनाओं सहित....

कभी संभव हो तो मेरे ब्लाग पर आईयेगा...

Rama said...

Rahul ji,

KShamaa chahati hooN mai apanaa blog address likhna bhool gayi....

http://ramadwivedi.wordpress.com

Unknown said...

Bakaul Firaq Gorakhpuri,
Jise kahtee hai duniay kamyabee, wa-e nadani,
use kin keemton par kamyab insan lete hain!!

Pahle videshon me girmitiya mazdoor gaye, ab Belgetiay mazadoor jate hain.

Aur Bharat ke vikas ke bare men Ghalib ka ek sher
"ham biyanban men hain aur ghar men bahar aayee hai.

Lekin Bahrat ke vikash ki baat bhee kitne sahee hai?
"ye bahat ke fasane, jo saba huna rahee hai,

agar aur koi kahta mujhe etbar hota."

(Ye India kee GDP, jo CNN suna rahi hai, Koi Hindi patra kahta, mujhe etbar hota).


Baharhal Rahulji, kewal aap hee is pesh-o-pesh men naheen hain.Bahut se hain, hamne mila kar.

Utsawa K. Chaturvedi