जो गुज़र गया वो गुज़श्ता है
जो हाथ में है वो गुलदस्ता है
जिसे कहता साक़ी ज़माना था
उसे हम कहते आज बरिस्ता है
जो प्यार करे और घाव न दे
वो आदमी नहीं फ़रिश्ता है
रिश्तों से बड़ा कोई नासूर नहीं
नासूर तो केवल रिसता है
देख चाँद समंदर कुछ यूँ बौराया
कि आज भी रेत पे सर घिसता है
है गरीब मगरिब मशरिक नहीं
जो कागज़ की थाल परसता है
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गुज़श्ता = भूतकाल
बरिस्ता = Barista
मगरिब = पश्चिम
मशरिक = पूरब
Sunday, July 12, 2009
जो गुज़र गया वो गुज़श्ता है
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:36 PM
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6 comments:
रिश्तों से बड़ा कोई नासूर नहीं
नासूर तो केवल रिसता है
बहुत खूब राहुल जी।
अनजाने लोगों में अक्सर कुछ अपने मिल जाते हैं।
खून के रिश्तों के चक्कर में जीवन कहाँ सँवरता है।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत बढिया
जो प्यार करे और घाव न दे
वो आदमी नहीं फ़रिश्ता है
बहुत सुन्दर शुभकामनायें
देख चाँद समंदर कुछ यूँ बौराया
कि आज भी रेत पे सर घिसता है
बहुत सुंदर ।
khubsoorat rachana .........badhaaee
Rahul, good poem with sensitive thinking.
Keep it up.
dr.bhoopendra
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