Sunday, July 12, 2009

जो गुज़र गया वो गुज़श्ता है

जो गुज़र गया वो गुज़श्ता है
जो हाथ में है वो गुलदस्ता है

जिसे कहता साक़ी ज़माना था
उसे हम कहते आज बरिस्ता है

जो प्यार करे और घाव न दे
वो आदमी नहीं फ़रिश्ता है

रिश्तों से बड़ा कोई नासूर नहीं
नासूर तो केवल रिसता है

देख चाँद समंदर कुछ यूँ बौराया
कि आज भी रेत पे सर घिसता है

है गरीब मगरिब मशरिक नहीं
जो कागज़ की थाल परसता है
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गुज़श्ता = भूतकाल
बरिस्ता = Barista
मगरिब = पश्चिम
मशरिक = पूरब

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6 comments:

श्यामल सुमन said...

रिश्तों से बड़ा कोई नासूर नहीं
नासूर तो केवल रिसता है

बहुत खूब राहुल जी।

अनजाने लोगों में अक्सर कुछ अपने मिल जाते हैं।
खून के रिश्तों के चक्कर में जीवन कहाँ सँवरता है।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

राजीव तनेजा said...

बहुत बढिया

निर्मला कपिला said...

जो प्यार करे और घाव न दे
वो आदमी नहीं फ़रिश्ता है
बहुत सुन्दर शुभकामनायें

Asha Joglekar said...

देख चाँद समंदर कुछ यूँ बौराया
कि आज भी रेत पे सर घिसता है
बहुत सुंदर ।

ओम आर्य said...

khubsoorat rachana .........badhaaee

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

Rahul, good poem with sensitive thinking.
Keep it up.
dr.bhoopendra