कविताएँ अलग-अलग समय पर लिखी गई थीं, लेकिन संदर्भ एक ही है - वह घटना जिसकी 40 वीं वर्षगांठ इन दिनों मनाई जा रही है।
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मृगतृष्णा
वो एक पत्थर
जिस पर आँखें गड़ी थी
जिससे हमारी उम्मीदें जुड़ी थी
जैसे का तैसा बेजान पड़ा था
जैसा किसी कारीगर ने गढ़ा था
रुकते थे सब
कोई ठहरता नहीं था
जैसा था सोचा
ये तो वैसा नहीं था
था मील का पत्थर
ये तो गंतव्य नहीं था
चाँद से भी ऐसे ही उम्मीदें जुड़ी थी
चाँद पर भी ऐसे ही आंखे गड़ी थी
आज मात्र एक मील का पत्थर
तिरस्कृत सा पड़ा है पथ पर
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वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
वो घड़ी
वो लम्हा
वो क्षण
मानव के इतिहास में है
स्वर्ण अक्षरों में दर्ज
मस्तिष्क में हैं अंकित
अभी तक उस जूते की छाप
जिसने एक ही कदम में
लिया था ब्रह्माण्ड को नाप
अर्घ देती थी जिसे
शादीशुदा नारी सभी
शिव की शोभा जिसे
कहते थे ज्ञानी-ध्यानी सभी
अच्छी तरह से याद है
दुनिया को
अभी तक वो घड़ी
जब जूतों तले रौंदी गई थी उसकी ज़मीं
लेकिन
वापसी की घड़ी
ठीक से याद नहीं
जो होता है दूर
वो लगता है चाँद
जो होता है पास
नहीं लगता है खास
जो होता है दूर
उसकी आती है याद
जो होता है पास
वो लगता है भार
त्रेतायुग और कलियुग में फ़र्क यही
जानेवाले किये जाते हैं सहर्ष विदा
वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
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धुआँ करे अहंकार
दूर से देते अर्घ थे
उतरें तो रखें पाँव
ये कैसा दस्तूर है?
करे शिकायत चाँद
दूर से लगते नूर थे
पास गए तो धूल
रूप जो बदला आपने
हम भी बदले हज़ूर
पास रहें या दूर रहें
रहें एक से भाव
ऐसे जीवन जो जिए
करें न पश्चाताप
हर दस्तूर दुरूस्त है
'गर गौर से देखें आप
जहाँ पे जलती आग है
धुआँ भी चलता साथ
पल पल उठते प्रश्न हैं
हर प्रश्न इक आग
उत्तर उनका ना दिखे
धुआँ करे अहंकार
ज्यों-ज्यों ढलती उम्र है
ठंडी पड़ती आग
धीरे-धीरे आप ही
छट जाए अंधकार
जोगी निपटे आग से
करके जाप और ध्यान
हम निपटते हैं तभी
हो जाए जब राख
Thursday, July 23, 2009
तीन कविताएँ - एक संदर्भ
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:21 AM
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3 comments:
तीन की तीनों रचनाऐं प्रभावी. बहुत बधाई.
तीनो रचनाएं अच्छी लगी !!
अत्यंत सुन्दर
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