Saturday, January 19, 2013

बुद्धिजीवियों की यह बिसात नहीं है


राहुल से जो उम्र में बड़े हैं
सबके सब आज कूढ़ रहे हैं

आखिर किस बात का उन्हें ग़म है यारो
कि
वो उम्र में छोटा है
और ओहदा बड़ा है?
कि वो किसी का बेटा है
और कोई उसकी माँ है?
कि उसे किसी ने न रोका
न कोई माई का लाल अड़ा है?
सब अफ़रा-तफ़री में
हो रहा है?
प्रजातंत्र का मटियामेट
हो रहा है?

उनसे मुझे एक बात है कहनी
कि
जब कांग्रेस ने इंदिरा गाँधी चुनी थी
राजीव के सर टोपी रखी थी
आप ने ही तो इन्हें वोट दिया था
बार-बार निर्वाचित किया था

और आज अगर राहुल पसंद नहीं है
तो अगली बार इन्हें वोट न देना
फिर भी अगर ये जीत गए तो
जनता को कोई दोष न देना
सही मायनों में प्रजातंत्र यहीं है
बुद्धिजीवियों की यह बिसात नहीं है

19 जनवरी 2013
सिएटल । 513-341-6798

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1 comments:

Anonymous said...

कविता की पहली दो lines पढ़कर समझने में समय लगा कि यह किसकी बात है :) शायद यह 'राहुल' आपकी कविताओं के तीसरे 'राहुल' हैं। कुछ पहले की कविताएँ जो याद आईं :

1. 'कभी-कभी दुआओं का जवाब आता है':
"पराए भी अपनों की तरह पेश आते हैं 'राहुल'
वक़्त कभी-कभी ऐसा भी खराब आता है "

Of course, इन 'राहुल' का ज़िक्र तो कई कविताओं में मिलता है

2. 'मुक़द्दर':
"असम्भव था सिद्धार्थ का बुद्ध होना
राहुल संतान जो नहीं बनकर होता"

3. और आज यह नई कविता 'बुद्धिजीवियों की यह बिसात नहीं है':
"राहुल से जो उम्र में बड़े हैं
सबके सब आज कूढ़ रहे हैं"