आज इंसान बड़ा परेशान है
थका-मांदा रोता हर शाम है
क्या हुआ जो ये इतना पढ़ा है?
पढ़-लिख कर क्या आगे बढ़ा है?
हर तरफ़ इसका माथा झुका है
हर मंदिर में हाथ जोड़े खड़ा है
यूँ का यूँ ही धरा ज्ञान-विज्ञान है 
है सशक्त पाँव, मार्ग नहीं है
है धुआँ ही धुआँ, आग नहीं है
उठता है रोज़ सवेरे
पर खुली इसकी आँख नहीं है
जग के भी जग से अनजान है
जीने के दिन आज बेशक बढ़े हैं 
पर कोल्हू के बैल से सेठ से बँधे हैं
ख़ुद की आवाज़ से है डर इतना कि
कानों में तार लगातार लगे हैं 
रोज़ निर्बल होता ये इंसान है
राहुल उपाध्याय । 18 अप्रैल 2019 । सिएटल
 
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2 comments:
बेहतरीन रचना ,बधाई हो आपको
Ekdum correct ..
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