Saturday, December 15, 2007

वतन और वेतन


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अब तक कहीं भी लगा न मन
दौलत को ही किया सदा नमन
वतन फ़रामोश हम हैं वे तन
जिन्हें न मिला मुंहमांगा वेतन
तो वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

देश ने हमें क्या कुछ न दिया
गंगा जमुना जैसी पावन नदियां
संस्कृत भाषा और सुसंस्कृत लोग
वेद, पुराण, गीता और कर्मयोग

फ़िर भी हमें न रास आया
बाहर क्या ऐसा खास पाया?
कि वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

गलती से दशरथ के बाण से
श्रवण हाथ धो बैठा प्राण से
बाप से छूट गई बेटे की डोर
राम चले अभ्युदय की ओर

हमारे पिता से क्या भूल हुई
कि देश की मिट्टी धूल हुई
और वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

यशोधरा ने जन्मा राहुल को
जंजाल सा लगा बाबुल को
उठ के ऐसे भागे जैसे चोर
बुद्ध चले निर्वाण की ओर

ये किस जंजाल से भागे हम
कि अभी तक नहीं जागे हम
क्यूं वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

आज वतन से दूर हैं हम
झूठ है कि मजबूर हैं हम
बिकने वाले मज़दूर हैं हम
मतलबी और मगरूर हैं हम

छाया कुछ ऐसा ऐश्वर्य का सुरुर
कि एक के बाद एक वतन के नूर
सब वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

ध्येय हमारे सही नहीं
श्रद्धेय हमारे कोई नहीं
जिनके पदचिन्ह मार्ग बता सके
जिनके सत्कर्म हमे जता सके
कि कोस नहीं ईश्वर को
तू थाम ले इस वर को
डगर डगर भटकने वाले बंजारे
ठहर किसी एक का बन जा रे

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1 comments:

हरिमोहन सिंह said...

कमाल वर दिया -सारी- भर दिया- जादू कर दिया