चीख रहे हैं चित्र सारे
मिमिया रहा है काव्य
रंगों की नुमाईश है
साहित्य का दुर्भाग्य
शब्द के बल पर जो कह देती थी
अपने मन की बात
पिक्सल-पिक्सल मर रही है
फोटोशॉप्पर के हाथ
माँ एक ऐसा शब्द है
जिसमें सैकड़ो अर्थ निहित
फोटो जोड़ा साथ में
अर्थ हुए सीमित
जिसे पढ़ के सुन के होते थे
पाठक-श्रोता भाव-विभोर
पलट-पलट के ग्लॉसी पन्ने
हो रहे हैं बोरम्-बोर
एक हज़ार शब्द के बराबर
होता होगा एक अकेला चित्र
लेकिन एक भी ऐसा चित्र नहीं
जो समझा सके कबीर का कवित्त
बड़ा हुआ तो क्या हुआ
जैसे पेड़ खजूर
लिखते आज कबीर तो क्या
साथ में होता पेड़ हुज़ूर?
सिएटल 425-445-0827
30 मई 2009
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पिक्सल = pixel ; फोटोशॉप्पर = photoshopper;
ग्लॉसी = glossy; बोर = bore
Saturday, May 30, 2009
मिमिया रहा है काव्य
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:38 AM
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Labels: digital age, new, world of poetry
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1 comments:
चित्र अपनी जगह है शब्द अपनी । चित्र के लियेकुछ ज्यादा तल्ख नही हो रहे हैं आप ?
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