एक तरफ़ है नीरज
एक तरफ़ हूँ मैं
वे हैं सम्पूर्ण
उनका पूरक हूँ मैं
पास-पड़ोस में दुश्मन
दूर-दराज हैं दोस्त
किस्मत का मारा
मुशर्रफ़ हूँ मैं
तारीफ़ कभी
कोई रिंद न करे
हलक से न उतरे
वो बर्फ़ हूँ मैं
लिखता वही
जो लिखना मुझे
इस्लाह कर के नहीं
लिखता हर्फ़ हूँ मैं
दीवान छपवाऊँ
इतना दीवाना नहीं
ब्लाग पे ही लिख के
रहता संतुष्ट हूँ मैं
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रिंद = पीनेवाला;हलक = गला;
इस्लाह = किसी काम में होनेवाली त्रुटियाँ,भूलों आदि को दूर करना। सुधारना। जैसे-उर्दू के नौसिखुए कवि पहले अपनी रचनाएँ उस्ताद को दिखाकर उनसे इस्लाह लेते हैं। (http://pustak.org/bs/home.php?mean=11834)
हर्फ़ = अक्षर
[यह रचना दो बातों से प्रेरित हो कर लिखी गई है।
पहली बात। हमारे शहर, सिएटल, की मासिक गोष्ठी को ढाई साल हो चुके हैं। गोष्ठी को एक नई दिशा, एक नया आयाम देने के प्रयास के तहत, यह निर्धारित किया गया है कि हम किसी प्रतिष्ठित कवि की रचनाओं में से अपनी पसंद की चुनें और उसे गोष्ठी में सुनाए। उद्देश्य है कि निराला, पंत, दिनकर आदि के अलावा अन्य कवियों की रचनाओं से भी हमारा परिचय हो, और वो भी उनके जीवनकाल में। और अगर कवि से सम्पर्क सम्भव हो सके तो हम उपस्थित व्यक्तियों द्वारा एक हस्ताक्षिरत पत्र भी उन्हें भेज सकते हैं।
अगस्त माह के कवि चुने गए हैं - श्री गोपालदास नीरज - जिनसे सब नीरज के नाम से परिचित हैं। उन्होंने कई फ़िल्मों के गीत लिखे हैं। गीतों की सूची बहुत लम्बी है। कुछ गीत इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं:
http://tinyurl.com/nirajsongs
उनकी कुछ कविताएँ इस लिंक पर जा कर पढ़ी जा सकती हैं:
http://tinyurl.com/nirajpoems
यदि आपको पुस्तकों में दिलचस्पी है तो इस लिंक पर देखें:
http://tinyurl.com/nirajbooks
दूसरी बात। हर गोष्ठी में एक स्थानीय कवि चुना जाएगा और उसकी कविताओं की आलोचना भी की जाएगी ताकि कवि को कुछ सीखने-समझने-सुधरने का अवसर मिलें। और अगस्त महीने में मेरी कविताओं की आलोचना करना तय हुआ है। ]
Wednesday, July 29, 2009
एक तरफ़ है नीरज, एक तरफ़ हूँ मैं
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:45 AM
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Thursday, July 23, 2009
तीन कविताएँ - एक संदर्भ
कविताएँ अलग-अलग समय पर लिखी गई थीं, लेकिन संदर्भ एक ही है - वह घटना जिसकी 40 वीं वर्षगांठ इन दिनों मनाई जा रही है।
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मृगतृष्णा
वो एक पत्थर
जिस पर आँखें गड़ी थी
जिससे हमारी उम्मीदें जुड़ी थी
जैसे का तैसा बेजान पड़ा था
जैसा किसी कारीगर ने गढ़ा था
रुकते थे सब
कोई ठहरता नहीं था
जैसा था सोचा
ये तो वैसा नहीं था
था मील का पत्थर
ये तो गंतव्य नहीं था
चाँद से भी ऐसे ही उम्मीदें जुड़ी थी
चाँद पर भी ऐसे ही आंखे गड़ी थी
आज मात्र एक मील का पत्थर
तिरस्कृत सा पड़ा है पथ पर
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वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
वो घड़ी
वो लम्हा
वो क्षण
मानव के इतिहास में है
स्वर्ण अक्षरों में दर्ज
मस्तिष्क में हैं अंकित
अभी तक उस जूते की छाप
जिसने एक ही कदम में
लिया था ब्रह्माण्ड को नाप
अर्घ देती थी जिसे
शादीशुदा नारी सभी
शिव की शोभा जिसे
कहते थे ज्ञानी-ध्यानी सभी
अच्छी तरह से याद है
दुनिया को
अभी तक वो घड़ी
जब जूतों तले रौंदी गई थी उसकी ज़मीं
लेकिन
वापसी की घड़ी
ठीक से याद नहीं
जो होता है दूर
वो लगता है चाँद
जो होता है पास
नहीं लगता है खास
जो होता है दूर
उसकी आती है याद
जो होता है पास
वो लगता है भार
त्रेतायुग और कलियुग में फ़र्क यही
जानेवाले किये जाते हैं सहर्ष विदा
वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
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धुआँ करे अहंकार
दूर से देते अर्घ थे
उतरें तो रखें पाँव
ये कैसा दस्तूर है?
करे शिकायत चाँद
दूर से लगते नूर थे
पास गए तो धूल
रूप जो बदला आपने
हम भी बदले हज़ूर
पास रहें या दूर रहें
रहें एक से भाव
ऐसे जीवन जो जिए
करें न पश्चाताप
हर दस्तूर दुरूस्त है
'गर गौर से देखें आप
जहाँ पे जलती आग है
धुआँ भी चलता साथ
पल पल उठते प्रश्न हैं
हर प्रश्न इक आग
उत्तर उनका ना दिखे
धुआँ करे अहंकार
ज्यों-ज्यों ढलती उम्र है
ठंडी पड़ती आग
धीरे-धीरे आप ही
छट जाए अंधकार
जोगी निपटे आग से
करके जाप और ध्यान
हम निपटते हैं तभी
हो जाए जब राख
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:21 AM
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Sunday, July 12, 2009
जो गुज़र गया वो गुज़श्ता है
जो गुज़र गया वो गुज़श्ता है
जो हाथ में है वो गुलदस्ता है
जिसे कहता साक़ी ज़माना था
उसे हम कहते आज बरिस्ता है
जो प्यार करे और घाव न दे
वो आदमी नहीं फ़रिश्ता है
रिश्तों से बड़ा कोई नासूर नहीं
नासूर तो केवल रिसता है
देख चाँद समंदर कुछ यूँ बौराया
कि आज भी रेत पे सर घिसता है
है गरीब मगरिब मशरिक नहीं
जो कागज़ की थाल परसता है
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गुज़श्ता = भूतकाल
बरिस्ता = Barista
मगरिब = पश्चिम
मशरिक = पूरब
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:36 PM
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Wednesday, July 1, 2009
आप जाने की ज़िद न करो
यूँही डॉलर कमाते रहो
हाय, मर जाएंगे
हम तो लुट जाएंगे
ऐसी बातें किया न करो
खुद ही सोचो ज़रा, क्यों न रोकेंगे हम?
जो भी जाता है रो-रो के आता है फिर
आपको अपनी क़सम जान-ए-जां
बात इतनी मेरी मान लो
आप जाने की ...
कद्र करते हैं देश की बहुत हम मगर
चंद डॉलर यही हैं जिनसे कुछ शान है
इनको खोकर कहीं, जान-ए-जां
उम्र भर न तरसते रहो
आप जाने की ...
कितना कुछ पाया हमने आ के यहाँ
कार और घर की चाबी भी है हाथ में
कल भटकना क्यूँ दर-दर जान-ए-जां
बात मानो यहीं पे रहो
आप जाने की …
सिएटल 425-898-9325
1 जुलाई 2009
(फ़ैयाज़ हाशमी से क्षमायाचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:49 PM
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