यह एक सर्वविदित सत्य है
कभी झुठलाया गया
तो कभी नकारा गया
हज़ार बार हमसे ये सच छुपाया गया
कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'
सोच के मंद मुस्करा देते थे वो
रंगीन गुब्बारे से बहला देते थे वो
बढ़े हुए तो सत्य से पर्दे उठ गए
और बच्चों की तरह हम रुठ गए
जैसे एक सुहाना सपना टूट गया
और दुनिया से विश्वास उठ गया
ये मिट्टी है, मेरा घर नहीं
ये पत्थर है, कोई ईश्वर नहीं
ये देश है, मातृ-भूमि नहीं
ये ब्रह्मांड है, ब्रह्मा कहीं पर नहीं
एक बात समझ में आ गई
तो समझ बैठे खुद को ख़ुदा
घुस गए 'लैब' में
शांत करने अपनी क्षुदा
हर वस्तु की नाप तोल करे
न कर सके तो मखौल करे
वेदों को झुठलाते है हम
ईश्वर को नकारते है हम
तर्क से हर आस्था को मारते हैं हम
ईश्वर सामने आता नहीं
हमें कुछ समझाता नहीं
कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'
बादल गरज-बरस के छट जाते हैं
इंद्रधनुष के रंग बिखर जाते है
सिएटल,
26 नवम्बर
(मेरा जन्म दिन)