तुम कितना रोई
तुम कितना सोई
तुम किसके ख़्वाब में
कितना खोई
इन सबका जवाब है
एक अलौकिक आभा में
जो छलक रही है
तुम्हारे कण-कण से
चम्मच हिलाते चूड़ी की खन-खन से
सीड़ियों से उतरते कदमों से
दुपट्टे के झिलमिलाते रंगों से
मोती से चमकते दाँतों से
सखियों की खुसफुसाती बातों से
तुम कहाँ रही
तुम कहाँ गई
तुम किसकी बाहों में
समा गई
ये बात नहीं है पूछने की
ये बात है बस समझने की
तुम एक नदी हो मदमाती
तुम एक कली हो मुस्काती
तुम जहाँ बहो वहाँ हरियाली
तुम जहाँ खिलो वहाँ खुशहाली
तुम किसी एक के साथ नहीं बंधती
तुम किसी एक की हो नहीं सकती
तुम एक नदी हो मदमाती
तुम एक कली हो मुस्काती
तुम जहाँ बहो वहाँ हरियाली
तुम जहाँ खिलो वहाँ खुशहाली ...
15 नवम्बर 2012
सिएटल । 513-341-6798
5 comments:
बहुत ही सुन्दर रचना है!
बहुत खूब लिखा है आपने |
ஜ●▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬●ஜ
ब्लॉग जगत में नया "दीप"
ஜ●▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬●ஜ
तुम एक नदी हो मदमाती
तुम एक कली हो मुस्काती
तुम जहाँ बहो वहाँ हरियाली
तुम जहाँ खिलो वहाँ खुशहाली
वाह वाऽऽह!
राहुल उपाध्याय जी
अच्छा लिखते हैं …
बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं !
Good
आपकी. कविता पसंद आई
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