Saturday, January 19, 2013

चेहरे पे आ जाती चमक है


दार्जलिंग की वादियों में
आसमान फट चुका था
गर-बरस के थम चुका था
कुछ बादल 
रुई के फोहों से 
इधर-उधर भटक रहे थे
दिल में अरमां मचल रहे थे
शाम सर्द थी
बदन सुलग रहे थे

मोटी चोटी गुंथी हुई थी
ज़िंदगी कितनी सुलझी हुई थी
तुम थी, मैं था और समा था
चिंता-फ़िकर का न कोई पता था

घंटे नहीं
कुछ पल ही थे गुज़रें
लेकिन ताज़ा ऐसे
जैसे कल ही थे गुज़रें

आज चिंता है
आज फ़िकर है
लेकिन याद में बसी
कुछ ऐसी इतर है
कि
घोर घटा हो
घोर तिमिर हो
चारों ओर 
छिड़ा समर हो
याद आते ही
बदल जाती शकल है
चेहरे पे 
आ जाती चमक है

19 जनवरी 2013
सिएटल । 513-341-6798
==========
इतर = इत्र

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1 comments:

Anonymous said...

रचना तो सुन्दर है ही लेकिन
दार्जलिंग की वादियों की backdrop को imagine करके इसे पढ़ना और भी अच्छा लगा...