प्यार के सारे ख़त फ़ाड़ देना
सख्त तो लगता है
लेकिन रूसवा ना हो जाए
डर तो लगता है
क्या समझेगा प्यार को कोई
रस्म-ओ-रिवाज़ की बात ही होगी
रिश्तों से उपर उठने में
वक़्त तो लगता है
सात जनम का साथ था लेकिन
पल भर में ही टूट गया
रिश्तों की मालिश ना हो तो
जंग तो लगता है
हम भी ऐसे ही थे यारो
जैसी सबकी फितरत थी
जबसे अपने हैं पैरों पर
फ़र्क़ तो लगता है
आपकी बातों में कोई
घात छुपी है राहुलजी कहीं
सच और सोच के मिश्रण में
सब सच तो लगता है
(हस्तीमल हस्ती से क्षमायाचना सहित)
14 अप्रैल 2013
सिएटल । 513-341-6798
====================
फितरत = स्वभाव
घात = धोखे में रखकर किया जाने वाला अहित या बुराई
5 comments:
कविता सच और/या सोच से intense बनी है! पढ़कर शहरयारजी की ग़ज़ल की दो lines याद आयीं:
"तुझको रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने"
DDLJ-style में:
ऐसा पहली बार हुआ है, 500+ कविताओं में, एक ग़ज़ल पर दो parodies, एक-साथ बनी ख़यालों में!
दोनों रचनाएं दिल को छूती हैं और कुछ गहरी बातें कहती हैं. Very nice, राहुलजी!
blog पथ०४ said
किसी के दिल को छूते हैं किसी को गुदगुदाते हैं
भाव राहुल जी के पढकर कोई मुस्कराते हैं
blog पथ०४ said
किसी के दिल को छूते हैं किसी को गुदगुदाते हैं
भाव राहुल जी के पढकर कोई मुस्कराते हैं
सात जनम का साथ था लेकिन
पल भर में ही टूट गया
रिश्तों की मालिश ना हो तो
जंग तो लगता है
Bhaut sundar and satya
Post a Comment