ज़िक्र होता है जब क़यामत का तेरे जलवों की बात होती है
तू जो चाहे तो नोट बदलता है तू जो जागे तो रात होती है
तेरे छप्पन इँची सीने के धोखे में
देखे थे हमने ख़्वाब कैसे कैसे
'गर करेगा कोई हमला तो
देंगे हम जवाब कैसे-कैसे
अब तो सिर्फ क्रिकेट-विकेट चलता है
और सीमाओं पे वारदात होती है
तेरे कुर्ते-पजामे में हमने
बापू-टेरेसा की सादगी देखी
तेरे भाषण, तेरे तेवर में
नए ज़माने की ताज़गी देखी
अब जो जाना तो पाया कि दो करोड़ की सम्पत्ति है
और तेरे ही तेरे मन की बात होती है
फिर से आए हैं चुनावों के मौसम
विपक्ष को जिताने के नहीं पक्ष में हैं हम
यह जनतंत्र कैसा षड़यंत्र है
तुझे वोट देने को मजबूर हैं हम
पर कुछ तो कर अच्छे दिनों के लिए
यहाँ तो दिन-दहाड़े ही रात होती है
(आनन्द बक्षी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय | 24 सितम्बर 2018 | सिएटल
1 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26-09-2018) को "नीर पावन बनाओ करो आचमन" (चर्चा अंक-3106) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
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