Tuesday, December 31, 2019
गाड़ी चाहे टेस्ला हो
गाड़ी चाहे टेस्ला हो
या हण्डाई
नारियल तोड़ ही दिया जाता है
इस कार का
एक्सीडेंट होगा या नहीं
यह दु:ख देगी या सुख
यह इस बात पर निर्भर करता है
कि इसके टायर के नीचे
कितने नींबू कुचले गए
चार लाख का घर हो
या चालीस लाख का
सत्यनारायण की कथा
करवा ही ली जाती है
क्या पता कोई बला टल ही जाए
एक ही किताब को
हर मंगल को बाँचने में
एक-डेढ़ घण्टा ख़राब
हो भी जाए तो क्या?
क्या पता जीवन
मंगलमय हो जाए?
संस्कृति और धर्म के बीच
जब अंतर कम होता नज़र आए
सब धुँधलाता जाए
तो एक बार नए सिरे से
सोच विचार कर लेना
लाज़मी हो जाना चाहिए
राहुल उपाध्याय । 31 दिसम्बर 2019 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:43 PM
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Thursday, December 19, 2019
मैं कुछ कहना चाहता हूँ
मैं कुछ कहना चाहता हूँ
लेकिन कहता नहीं
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ
लेकिन लिखता नहीं
मैं कुछ भेजना चाहता हूँ
लेकिन भेजता नहीं
मैं ग़ुलाम हूँ अपने भविष्य का
—:—:—:—:—:—:—:—:
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ
विमान भी है
रोका भी किसी ने नहीं
धन भी है
करने में फिर भी असमर्थ हूँ
रह जाता हूँ मन मसोस कर
नाक-कान-आँख बंद कर
चादर सर तक ओढ़ कर
हर अख़बार से मुँह मोड़कर
ताले में स्वाभिमान रखकर
हूँ लेकिन नहीं भी
राहुल उपाध्याय । 19 दिसम्बर 2019 । सिएटल
Sunday, December 15, 2019
जिस देश में निर्भया मरती है
न होंठों पे सच्चाई रहती है
न सड़कों पे सफ़ाई रहती है
हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में निर्भया मरती है
ज़्यादा नहीं थोड़े ही दिन
जनता आक्रोश में रहती है
फिर अपने-अपने घरों में बंद
क्रिकेट ही देखा करती है
करोड़ों की है आबादी
और दो-चार ही आवाज़ उठती है
कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं
विकास के आँकड़े बखानते हैं
कोई मर जाए तो इनको क्या
मृतकों की क़ीमत नापते हैं
पाँच-पाँच लाख दे-दे के
सरकार अपना कर्म पूरा करती है
नेता जो हमारे होते हैं
वो हैलिकॉप्टर से दौरा करते हैं
ज़मीं के हालात, ज़मीं के लोग
उन सबको को कहाँ पहचानते हैं
कुर्सी की महज़ है राजनीति
कुर्सी से ही चिपकी रहती है
जो जिससे मिला लिया हमने
अपनों को भी नहीं छोड़ा हमने
मतलब के लिए वीसा लेकर
विदेशों में भी लार टपकाई हमने
अब हम तो क्या सारी दुनिया
सारी दुनिया से कहती है
हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में निर्भया मरती है
(शैलेन्द्र से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 15 दिसम्बर 2019 । सिएटल
Friday, December 6, 2019
बात ही अलग है
भगवान सब जगह हैं
लेकिन क़तार में सबसे आगे होने की बात ही अलग है
चलने फिरने को रास्ते बहुत हैं
लेकिन पैसे देकर ट्रैडमिल पर चलने की बात ही अलग है
आईसक्रीम से फ़्रीज़ भरा पड़ा है
लेकिन फ़्री के स्कूप की बात ही अलग है
सेवा करने को माँ-बाप बहुत हैं
लेकिन बाढ़-पीड़ितों की सहायता की बात ही अलग है
जीवन जीने की कला सरल है
लेकिन पाँच सितारा आश्रम में गुरूजी से सुनने की बात ही अलग है
राहुल उपाध्याय | 6 दिसम्बर 2019 | सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:07 PM
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Labels: misc
Monday, November 25, 2019
राम जब बन गए
राम जब बन गए
तब राम बन गए
घर छोड़ा, मलाल नहीं
कई मुक़ाम बन गए
आग की मजाल क्या
जो जले राख बन गए
सीखूँ वो किताब कहाँ?
तराने खुद बन गए
आओ चलें, संग चले
अल्फ़ाज़ राह बन गए
राहुल उपाध्याय । 25 नवम्बर 2019 । सिएटल
Thursday, November 14, 2019
मन्दिर तो बन जाएगा
मन्दिर तो बन जाएगा
पर उन जूतों का क्या होगा
जो इधर-उधर बिखरे रहते हैं
लाख हिदायत देने पर भी
सुव्यवस्थित नहीं रखे जाते हैं
मन्दिर तो बन जाएगा
पर उन मवेशियों का क्या होगा
जो इधर-उधर मुँह मारते रहते हैं
जिन्हें जो गुड़-रोटी खिलाना चाहते हैं
वे भी डंडे मारने से नहीं चूकते हैं
मन्दिर तो बन जाएगा
पर उन फूलों का क्या होगा
जो बाग़ से उजाड़ दिए जाते हैं
कुछ पल पंडित के हाथ लगते ही
नाली में बहने लगते हैं
मन्दिर तो बन जाएगा
पर उन मिठाइयों का क्या होगा
जिनसे मोटापा बढ़ता रहता है
डायबिटीज़ का घाटा होता है
न खाने पर भगवान का प्रकोप बढ़ता है
मन्दिर तो बन जाएगा
पर वैष्णोदेवी-तिरूपति को टक्कर नहीं दे पाएगा
कृष्ण जन्मभूमि अविवादित है
पर कौन वहाँ के मन्दिर की मान्यता के गुण गाता है
मन्दिर तो बन जाएगा
पर मन कहाँ ख़ुश हो पाएगा?
राहुल उपाध्याय । 14 नवम्बर 2019 । सिएटल
Friday, October 25, 2019
चिट्ठी कोई लिखता नहीं है
चिट्ठी कोई लिखता नहीं है
बिन बुलाए कोई घर आता नहीं है
और पतझड़ है कि
रंग-बिरंगी संदेश घनेरे
बरसा रहा है
दर पर मेरे
कुछ तो इतने आतुर
कि घुस आए घर में
क़दमों से लिपटे
रंग इतने कि इन्द्रधनुष लजाए
आकार इतने कि गिने न जाए
इनसे मेरा क्या नाता है?
इनसे न मिलूँ तो इनका क्या जाता है?
क्यूँ इनका मैं फ़ोटो खींचूँ?
व्हाट्सैप के स्टेटस पे इन्हें लगाऊँ?
कैनवास पे मढ़ के दीवार सजाऊँ?
इनसे नहीं कोई नाता मेरा
तभी तो न इन्होंने, न मैंने इनको
आज तलक कोई ताना मारा
जब आते हैं
अच्छे लगते हैं
जब जाते हैं
सपने लगते हैं
मधुर, सरस, सुवास, सुहाने
प्रियकर इतने जितने न प्रियकर से भी प्रियकर गाने
चिट्ठी कोई लिखता नहीं है
बिन बुलाए कोई घर आता नहीं है
और पतझड़ है कि ...
राहुल उपाध्याय । 25 अक्टूबर 2019 । सिएटल
Thursday, October 10, 2019
कहाँ से चला, कहाँ मैं आज
कहाँ से चला, कहाँ मैं आज
कर्क रेखा से उड़ा, हूँ पैतालिस के पार
सर्दी-गर्मी-बरसात के झंझट से दूर
है वातानुकूलित निवास
एक ग़रीब सा तबक़ा
होंगी कोई सौ-दो-सौ झोपड़-पट्टी
जहाँ पाँच बसें सुबह आती थीं
शाम को चार
न था डॉक्टर
न कोई उपचार
स्कूल भी जाना हो
तो जाते थे रतलाम
ऐसा था शिवगढ़
मेरा जन्मस्थान
आमदनी के नाम पर भी
कहाँ था कुछ ख़ास
किसी की नहीं थी
कोई नियमित आय
या कोई स्थायी नौकरी
कोई पान बेचता था
कोई बीड़ी
कोई मिठाई
कोई दूध
कोई नाई
तो कोई बढ़ई
वहाँ से आज मैं हूँ समामिश में
अमेरिका के एक ऐसे शहर में
जहाँ के निवासियों की
पूरे अमेरिका में हैं सबसे अधिक आय
हैं घर-गाड़ी-सारे ऐश-ओ-आराम
जिस सुविधा की कल्पना करो
वही सहज मुहैया आज
कहाँ से चला
कहाँ मैं आज
सच कहूँ तो मैं चला ही कहाँ
मुझे नियति ने चलाया और मैं चलता रहा
न मैंने कोई योजना बनाई
न कोई गुरू
राहें खुलती रहीं
मैं क़दम बढ़ाता रहा
जितना मैं धन्यवाद देता रहा
उतनी ही मेरी झोली भरती रहीं
जितना मैं ख़ुद को ख़ुशक़िस्मत समझता रहा
उससे अधिक मुझे ख़ुशी मिलती रही
जितना मैं देता रहा
उससे कई गुना पाता रहा
बचपन में सुना था
तुम एक पैसा दोगे
वो दस लाख देगा
विडम्बना तो यह है कि
सिवाय धन्यवाद मैंने
आज तक किसी को
एक पैसा भी नहीं दिया
राहुल उपाध्याय । 10 अक्टूबर 2019 । सिएटल
Friday, September 27, 2019
रोए यूँ पागल एन-आर-आई
चुभ जाती हैं ये हवाएँ
गड़गड़ाता है गगन
हो रही है जम के जग हँसाई
ज़ूबी डूबी परमपम
ज़ूबी डूबी, ज़ूबी डूबी परमपम
ज़ूबी डूबी, ज़ूबी डूबी परमपम
रोए यूँ पागल एन-आर-आई
शाख़ों से पत्ते गिर रहे हैं
फलों पे कीड़े लग रहे
सड़कों पे फिसलन हो रही है
ये पंछी चीख़ रहे
बगिया में दो बूढ़ों की
हो रही है गुफ़्तगू
जैसा बचपन में रोता था
रो रहा है हुबहू
रिमझिम रिमझिम रिमझिम
सन सन सन सन हवा
टिप टिप टिप टिप बूँदे
गुर्राती बिजलियाँ
भीगा-भागा बैकपैक
ढो के यूँ बस पकड़ता तू
जैसा बचपन में ढोता था
ढो रहा है हुबहू
आय-आय-टी का पास तू
यहाँ बर्तन धो रहा
कच्चे-पक्के दाल-चावल
खा के पेट भर रहा
हैं रातें अकेली तन्हा
सो रहा है हाथ में रिमोट ले तू
जैसा बचपन में सोता था
सो रहा है हुबहू
(शान्तनु मोयत्रा से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 27 सितम्बर 2019 । सिएटल
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