दो साल में चार दिन ही बचे थे
और सारा देश
ख़ुशी से झूम उठा
क्या राष्ट्रपिता की हत्या का दु:ख
इतना अल्पकालिक था?
अल्पकालिक?
महाशय, आपका दिमाग तो सही है?
यहाँ तो चौथे/तेरहवीं पर ही लोग
इधर-उधर की बातें करने लग जाते हैं
आगामी चुनाव,
पिछले भ्रष्टाचार की
बखिया उधेड़ने लग जाते हैं
व्हाट्सैप पर आए वीडियो
चटखारे लेकर देखने-दिखाने लग जाते हैं
दिन, महीनों, सालों की अवधियों का
अब मोल ही क्या रहा
एक क्षण आप दु:ख से चूर हैं
तो दूसरे ही क्षण ठहाकों की गूँज है
एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट
दूसरी से तीसरी
चक्र चलता रहता है
बेतहाशा
हम इंसान नहीं
एक बिसात है
जिसकी पल-पल
बदलती चाल है
4 फ़रवरी 2019
(बाऊजी की पचासवीं मासिक पुण्यतिथि)
सिएटल
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बिसात = chessboard
1 comments:
बहुत सटीक अभिव्यक्ति...
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