कितनी नींवें रखी गईं हैं
कितनी इमारतें ध्वस्त हुईं हैं
हर गली में अंतरराष्ट्रीय मंच है
और हर मोहल्ला एक पीठ
एक-दूसरे की पीठ खुजाते-खुजाते
आ ही जाती है एक दिन खीज
कि तुमसे ज़्यादा तो हम भले थे
और हम यहाँ तुम्हें पूजने चले थे?
संघ, संस्थाओं की भीड़ बड़ी है
फिर भी हमें कम लगी है
बस बनाकर एक और संगठन
जग का हम अब उद्धार करेंगे
हिन्दी बिचारी डूब रही हैं
इसका बेड़ा हम पार करेंगे
(नाम होगा इतना भयंकर कि
गांधी भी बिचारे रो पड़ेंगे
कि हाय रे इतना युग-परिवर्तक
नाम मैं क्यों सोच न पाया)
हर हिन्दी दिवस पर फूल चढ़ाएँगे
हर वसंत पंचमी पर गीत गूंजेंगे
होली पर हा-हा-ही-ही होगा
दीवाली पर कवि सम्मेलन का स्वाँग भी होगा
कपड़े होंगे रंग-बिरंगे
फ़ोटो में हम ख़ास लगेंगे
बनारसी साड़ी, नेहरू जैकेट, लखनवी कुर्ता
इन सबमें में हम इतिहास रचेंगे
कभी-कभार एक किताब छपेंगी
जोर-शोर से उसका विमोचन होगा
पाठक चाहे दस ही हो लेकिन
समोसे खाने वाले बीस-तीस तो होंगे
जिसे देखो वो बधाई देगा
हाथों-हाथ भूरी-भूरी प्रशंसा करेगा
कभी किसी की षष्ठी-पूर्ति
को कभी किसी को पुरस्कार वितरण
इन सबका भी इसमें समावेश होगा
सबका साथ, सबका विकास
यही हमारा भी नारा होगा
और फिर किसी बात पर फूट पड़ेगी
कोई हमसे दूर होगा
फिर से एक संस्था जन्मेगी
फिर से जग का उद्धार होगा
राहुल उपाध्याय | 12 फ़रवरी 2019 | सिएटल
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