Saturday, February 29, 2020
कोरोना का कोई इलाज नहीं है
कोरोना का कोई इलाज नहीं है
कल तो होगा जो आज नहीं है
जब तक जीवन है जी भर के जियो
निराश होने की कोई बात नहीं है
न आए मर्ज़ी से, न जाएँगे मर्ज़ी से
आने-जाने का कोई हिसाब नहीं है
चुटकुला आए कोई व्हाट्सैप पर
हँसी छूटे तो कोई अपराध नहीं है
क्यूँ मुँह लटकाए बैठे 'राहुल'
ज़िन्दा है कोई लाश नहीं है
राहुल उपाध्याय । 29 फ़रवरी 2020 । सिएटल
Wednesday, February 26, 2020
नासै रोग हरे सब पीरा
नासै रोग हरे सब पीरा
जपत निरंतर हनुमत बीरा
यानि जितने रोगी मरे
सब हनुमान चालीसा न जपने से मरे
लगता है हम दोहरे व्यक्तित्व वाले बन गए हैं
एक तरफ़ तो इतने जागरूक
कि डॉक्टर बनने के सपने
देखते हैं और दिखाते हैं
और दूसरी ओर
हनुमान चालीसा दोहराते हैं
आप कहेंगे
आपको क्या आपत्ति हैं
जो दो-चार लोग मिलकर ख़ुश हो लेते हैं
कोई गायन प्रतिभा पर वाह-वाह लूट लेता है
कोई हारमोनियम का उस्ताद निकल आता है
कोई नाच लेता है, झूम लेता है
सब खा-पी लेते हैं
रंग-बिरंगे परिधान पहनने का अवसर मिल जाता है
हमारी संस्कृति की छँटा सँवर जाती है
मिलने के बहाने मिल जाते हैं
दु:ख-सुख की बात कर लेते हैं
क्या सचमुच शब्द इतने बेमानी हो गए हैं?
क़सूर इनका नहीं
क़सूर है इस व्यवस्था का
जिसमें शब्दों पर कोई ध्यान नहीं देता
कविता या तो कोई पढ़ता नहीं है
और पढ़ता है तो
सन्दर्भ सहित व्याख्या से तो कोसों दूर भागता है
और गीत हुआ तो
धुन से बाहर ही नहीं निकल पाएगा
और भाषा अवधी हो तो पूरा बेड़ा ही गर्क है
अंधन को आँख देत
कोढ़ियन को काया
अंधा बनाया ही क्यों?
कोढ़ दिया ही क्यों?
हम कब उबरेंगे इन जय इनकी, जय उनकी से?
क्यों नहीं अपनाते:
हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें
दूसरों की जय से पहले, खुद को जय करें
भेद-भाव अपने दिलसे, साफ़ कर सकें
दूसरोंसे भूल हो तो, माफ़ कर सकें
झूठ से बचे रहें, सचका दम भरें
मुश्किलें पड़ें तो हम पे, इतना कर्म कर
साथ दें तो धर्म का, चलें तो धर्म पर
खुदपे हौसला रहे, सचका दम भरें
राहुल उपाध्याय । 26 फ़रवरी 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:29 AM
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Monday, February 24, 2020
जो पर्वत हैं
जो पर्वत हैं
वे बेज़ुबान हैं
जो बेज़ुबान हो जाते हैं
क्या उन्हें पर्वत बना दिया जाता है?
या जो पर्वत बन जाते हैं
वे बेज़ुबान हो जाते हैं
पता नहीं
पर पते की बात यह अवश्य है
कि जो जितना बड़ा होता है
उतना ही ख़ामोश होता है
और इसमें कोई बुराई भी नहीं
चुप रहना
एक अलौकिक शक्ति है
और इसे स्वर्णतुल्य भी माना गया है
और वैसे भी
छोटे मुँह, बड़ी बात के
कई उदाहरण भी हैं
बिचारा शिशुपाल
यूँही मारा गया
और
जो चुप रहें
पितामह कहलाए
या पितामह थे
इसलिए चुप रहें?
इससे पहले
कि कोई मेरे सौ गिने
मैं अपनी क़लम यही रोक देता हूँ
राहुल उपाध्याय । 24 फ़रवरी 2020 । सिएटल
Tuesday, February 11, 2020
हमें तुमसे प्यार कितना, ये हम नहीं जानते
हमें तुमसे प्यार कितना, ये हम नहीं जानते
मगर जीता नहीं सकते विधान सभा
सुना योगाभ्यास अच्छा सीखाते हो तुम
बातें भी अच्छी-अच्छी बनाते हो तुम
दिल तो तुम्हारा लगे, बर्फ़ के समाम
तुमपे ऐतबार कितना, ये हम नहीं जानते
मगर जीता नहीं सकते विधान सभा
हिन्दू-मुस्लिम की बात करके जलाते हो दिल
विकास के नाम पे फाड़ा 370 का बिल
क्या क्या जतन करते हो, तुम्हें क्या पता
ये दिल बेवकूफ कितना, ये हम नहीं जानते
मगर जीता नहीं सकते विधान सभा
(मजरूह से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 11 फ़रवरी 2020 । सिएटल
आप के हसीन रुख़ पे आज नया नूर है
आप के हसीन रुख़ पे आज नया नूर है
मोदी का बल विफल रहा तो मेरा क्या क़ुसूर है
केजरी की झाड़ू से दिल्ली का बदला रूप है
घटा से जैसे छन रही सुबह-सुबह की धूप है
जिधर नज़र मुड़ी उधर सुरूर ही सुरूर है
मनोज तिवारी जी चाह रहे ट्वीट वो डिलीट हो
मोदी जी भी मान गए कि केजरी तुम हिट हो
शाह हार के कहीं न कहीं रो रहे ज़रूर हैं
जहाँ-जहाँ पड़े कदम वहाँ फ़िज़ा बदल गई
के जैसे सर-बसर बहार आप ही में ढल गई
किसी में ये कशिश कहाँ जो आप में हुज़ूर है
(अनजान से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 11 फ़रवरी 2020 । सिएटल
Thursday, February 6, 2020
फूल ही फूल होते
फूल ही फूल होते
खार न होते
'गर होती उसे अमन की चाहत
उसके हाथ हथियार न होते
आँख के बदले
आँख न लेते
तो दीवाली जैसे
त्योहार न होते
हमसे न कहो
सबसे प्रेम करो
'गर होता प्रेम
यूँ नरसंहार न होते
'गर सच में चाहते
हो सबका स्वागत
तो खुद के घर के
बंद द्वार न होते
दीवारों से यदि होती
हमें सच में नफ़रत
अपना-पराया
परिवार न होते
राहुल उपाध्याय । 6 फ़रवरी 2020 । सिएटल
Wednesday, February 5, 2020
बरसात के फ़ोटो अच्छे नहीं आते हैं
बरसात के फ़ोटो अच्छे नहीं आते हैं
एक तो
फ़ोन ख़राब न हो जाए
इसलिए लेता ही कम हूँ
दूजा
डी-एस-एल-आर तो
भूल कर भी नहीं निकालता हूँ
और तीजा
सर पर 'हूडी' चड़ा लेने से
कोल्हू के बैल की तरह
जो नाक की सीध में है
बस वही दिखता है
चौथा
नज़रें ज़मीं में गाड़े चलता हूँ
ताकि किसी कुलबुलाते
लघु कुण्ड में कहीं पाँव
छपाक से न घुस जाए
कुल मिलाकर जब कुछ
दिखता ही नहीं है
तो फ़ोटो क्या खाक लूँगा?
ऐसे में याद आते हैं
बारिश के दिन
जब मैं और तुम
सरपट उतरते थे
पहाड़ी से
पाँच-पच्चीस की
आख़री
ट्रेन पकड़ने
और
ट्रेन छूट जाने पर
मूसलाधार बारिश में भी
चींटी की चाल चला करते थे
जैसे कह रहे हो
जिसको जो बिगाड़ना हो बिगाड़ ले
हम तो अब अपनी मर्ज़ी से चलेंगे-रूकेंगे
कभी किसी
पेड़ की छाँव में
रैन-बसेरे में
रूक भी जाते थे
चुपचाप कुछ कह भी देते थे
घर आकर
गरम-गरम गौर-राब
की चुस्कियों का आनन्द
अमृत-तुल्य होता था
(छतरी थी तो सही
लेकिन वो पहले ही दिन
खो गई थी
और दूसरी कभी ली नहीं)
बरसात के फ़ोटो अच्छे नहीं आते हैं
इसलिए
यादों के चलचित्र ही चला लेता हूँ
राहुल उपाध्याय । 5 फ़रवरी 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:37 PM
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