बरसात के फ़ोटो अच्छे नहीं आते हैं
एक तो
फ़ोन ख़राब न हो जाए
इसलिए लेता ही कम हूँ
दूजा
डी-एस-एल-आर तो
भूल कर भी नहीं निकालता हूँ
और तीजा
सर पर 'हूडी' चड़ा लेने से
कोल्हू के बैल की तरह
जो नाक की सीध में है
बस वही दिखता है
चौथा
नज़रें ज़मीं में गाड़े चलता हूँ
ताकि किसी कुलबुलाते
लघु कुण्ड में कहीं पाँव
छपाक से न घुस जाए
कुल मिलाकर जब कुछ
दिखता ही नहीं है
तो फ़ोटो क्या खाक लूँगा?
ऐसे में याद आते हैं
बारिश के दिन
जब मैं और तुम
सरपट उतरते थे
पहाड़ी से
पाँच-पच्चीस की
आख़री
ट्रेन पकड़ने
और
ट्रेन छूट जाने पर
मूसलाधार बारिश में भी
चींटी की चाल चला करते थे
जैसे कह रहे हो
जिसको जो बिगाड़ना हो बिगाड़ ले
हम तो अब अपनी मर्ज़ी से चलेंगे-रूकेंगे
कभी किसी
पेड़ की छाँव में
रैन-बसेरे में
रूक भी जाते थे
चुपचाप कुछ कह भी देते थे
घर आकर
गरम-गरम गौर-राब
की चुस्कियों का आनन्द
अमृत-तुल्य होता था
(छतरी थी तो सही
लेकिन वो पहले ही दिन
खो गई थी
और दूसरी कभी ली नहीं)
बरसात के फ़ोटो अच्छे नहीं आते हैं
इसलिए
यादों के चलचित्र ही चला लेता हूँ
राहुल उपाध्याय । 5 फ़रवरी 2020 । सिएटल
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