नासै रोग हरे सब पीरा
जपत निरंतर हनुमत बीरा
यानि जितने रोगी मरे
सब हनुमान चालीसा न जपने से मरे
लगता है हम दोहरे व्यक्तित्व वाले बन गए हैं
एक तरफ़ तो इतने जागरूक
कि डॉक्टर बनने के सपने
देखते हैं और दिखाते हैं
और दूसरी ओर
हनुमान चालीसा दोहराते हैं
आप कहेंगे
आपको क्या आपत्ति हैं
जो दो-चार लोग मिलकर ख़ुश हो लेते हैं
कोई गायन प्रतिभा पर वाह-वाह लूट लेता है
कोई हारमोनियम का उस्ताद निकल आता है
कोई नाच लेता है, झूम लेता है
सब खा-पी लेते हैं
रंग-बिरंगे परिधान पहनने का अवसर मिल जाता है
हमारी संस्कृति की छँटा सँवर जाती है
मिलने के बहाने मिल जाते हैं
दु:ख-सुख की बात कर लेते हैं
क्या सचमुच शब्द इतने बेमानी हो गए हैं?
क़सूर इनका नहीं
क़सूर है इस व्यवस्था का
जिसमें शब्दों पर कोई ध्यान नहीं देता
कविता या तो कोई पढ़ता नहीं है
और पढ़ता है तो
सन्दर्भ सहित व्याख्या से तो कोसों दूर भागता है
और गीत हुआ तो
धुन से बाहर ही नहीं निकल पाएगा
और भाषा अवधी हो तो पूरा बेड़ा ही गर्क है
अंधन को आँख देत
कोढ़ियन को काया
अंधा बनाया ही क्यों?
कोढ़ दिया ही क्यों?
हम कब उबरेंगे इन जय इनकी, जय उनकी से?
क्यों नहीं अपनाते:
हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें
दूसरों की जय से पहले, खुद को जय करें
भेद-भाव अपने दिलसे, साफ़ कर सकें
दूसरोंसे भूल हो तो, माफ़ कर सकें
झूठ से बचे रहें, सचका दम भरें
मुश्किलें पड़ें तो हम पे, इतना कर्म कर
साथ दें तो धर्म का, चलें तो धर्म पर
खुदपे हौसला रहे, सचका दम भरें
राहुल उपाध्याय । 26 फ़रवरी 2020 । सिएटल
1 comments:
राहुल जी , आस्थाओं के लिय तर्क नहीं होते
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