अमीर और गरीब, राजा और रंक
सबके सब रह जाते हैं दंग
विधि का विधान कभी न रुका है
इसके आगे हर मस्तक झुका है
भर दे गर सागर कोई रो रो के
जानेवाले फिर भी न जाते हैं रोके
रात और दिन, सुबह और शाम
सूझता है बस काम ही काम
अपनो को छोड़ अपनाते हैं धंदे
थोड़ा सा ज्यादा अगर वो धन दे
जोड़ते हैं सोना चार चार पाई कर
जबकि सोना है बस एक चारपाई पर
पूरब और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण
हम सब है एक, नहीं हैं भिन्न
तब तक ही बस दिल हमारा धड़के
जब तक है साथ सिर हमारे धड़ के
बात बात पर गर हम भड़के
मुद्दे उठेंगे नए एक रण के
क्या मिलेगा दुनिया को लड़ के?
गरीबों ने बस गवाएं हैं लड़के
ईश्वर से करे हम ऐसी कामना
बुरा हो हमसे कोई काम ना
आओ चलो कसम हम ले
आदमी आदमी पे करे न हमले
बने हम तुम कुछ ऐसे गमले
जो खुशीयां दे और हर हर गम ले
मेहमां हैं हम पल दो पल के
हंसे-हंसाए जब तक खुली हैं पलके
आंसू किसी के कभी न छलके
करे न काम कपट और छल के
हेंकड़ी न हांके ताकत और बल की
शरण में जाए ईश्वर के बल्कि
Monday, October 15, 2007
कामना
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:12 PM
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1 comments:
भर दे गर सागर
कोई रो रो के
जानेवाले फिर भी
न जाते हैं रोके
--वाह और भी सारे बेहतरीन...रो के-रोके-क्या बात है. आनन्द आया एक अलग सा प्रयोग. बधाई.
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