दुखी है दुनिया परेशान हैं लोग दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं रोग डाँक्टर का फ़रमान है कहता हर विद्वान है मक्खन न खाओ चीनी न खाओ इस तरह अपनी सेहत बचाओ मोटापा भी बड़ता है डाँयबिटीज़ भी होती है डेंटिस्ट की कुर्सी में खिंचाई भी होती हैं इन सबके बावजूद हम अपने हाथ खुद हमारे-तुम्हारे पेट कर देते हैं भेंट करोड़ों की कैंडी करोड़ों की चाँकलेट हम जागरुक देश के निवासी जाग के भी सो रहे हैं बच्चों के लिए हम कैसा भविष्य बो रहे हैं? यहाँ कद्दू पर कद्दू कत्ल हो रहे हैं तो कहीं बिलखते बच्चे भूखे सो रहे हैं यहाँ डरावने मुखौटों में हम हास्य ढूंढ रहे हैं तो कहीं कूढ़े कचरे में वो खाना ढूंढ रहे हैं सिएटल 31 अक्टूबर 2007
Wednesday, October 31, 2007
Halloween
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:59 PM
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2 comments:
सही है, राहूल जी.
मन को छू लेने वाली पंक्तियाँ. सही कहा आपने. इस पर कुछ विचार और कुछ कार्य की जरूरत है.
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