लिख नहीं पाता हूं राजी खुशी की दो-चार लाईने तक माँ-बाप को और लिख रहा हूँ लम्बे-लम्बे blog जिसे भेजता हूं रोज आप को Atoms की feed RSS की feed बो रही है क्रांति के seed सोचता हूँ मैं भी उजागर करूं एकाध आस्तीन के सांप को लिख नहीं पाता हूं… छपते ही किताब धूल खाती है जनाब छपते ही blog Aggregators जाते हैं जाग Bits और bytes के बीच छोड़ जाना चाहता हूं अपनी अमिट छाप को लिख नहीं पाता हूं… क्या-क्या खोया क्या-क्या पाया वक्त मुझे कहाँ ले आया बड़ी धूम से दर्शाता हूं blog पर हर एक पुण्य और पाप को लिख नहीं पाता हूं… 17 अक्टूबर 2007
Wednesday, October 17, 2007
आत्मकथ्य
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:15 PM
आपका क्या कहना है??
2 पाठकों ने टिप्पणी देने के लिए यहां क्लिक किया है। आप भी टिप्पणी दें।
Labels: 24 वर्ष का लेखा-जोखा, bio, digital age, TG, Why do I write?, world of poetry
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
क्या बात कह गये, राहूल भाई. बहुत खूब.
अपने हुए पराए। छोटे से आत्म कथ्य में बड़ा-सा दर्द कुरेद गए आप...सैलानी राहुल भाई
Post a Comment