Thursday, November 1, 2007

एक और दीवाली


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

होली का माहौल हो
या दीवाली का त्यौहार
मनाया जाता है
सिर्फ़ शनिवार रविवार

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

एक ही तरह की
महफ़िल है सजती
निमंत्रण देने पर
घंटी है बजती
कर के वही
बे-सर-पैर की बातें
गुज़ारी जाती हैं
वो दो-चार रातें

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

त्यौहार-दर-त्यौहार
वहीं लाल-पीले
कपड़े पहने हैं जाते
वही घिसे-पिटे जोक्स
सुनाए हैं जाते
वही छोले
वही मटर-पनीर
वहीं गुलाब जामुन
और वही खीर

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

पैसे की होड़ में
आगे बढ़ने की दौड़ में
पार की थीं सरहदें
और पार कर गए कई हदें

दोस्तों से बंद हुआ
दुआ-सलाम
भूल गए करना
बड़ों को प्रणाम
धूल खा रहा है
पूजा का दीपक
रामायण के पोथे को
लग गई है दीमक

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

महानगर की गोद में
इमारतों की चकाचौंध में
हैं अपनों से दूर
हम सपनों के दास
न पूनम से मतलब
न अमावस का अहसास

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

21 अक्टूबर 2006

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1 comments:

Batangad said...

'दोस्तों से बंद हुआ
दुआ-सलाम
भूल गए करना
बड़ो को प्रणाम
धूल खा रहा है'

'महानगर की गोद में
ईमारतों की चकाचौंध में
हैं अपनों से दूर
हम सपनों के दास'

ये अहसास तो अब धीरे-धीरे देश में रहने वालों को भी होने लगा है