Tuesday, December 25, 2007

चुनाव


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते, हमे क्या
ये मुल्क नहीं मिल्कियत हमारी
हम इन्हे समझे हम इन्हे जाने
ये नहीं अहमियत हमारी

तलाश-ए-दौलत आए थे हम
आजमाने किस्मत आए थे हम
आते है खयाल हर एक दिन
जाएंगे अपने घर एक दिन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
बदलेगी नहीं नीयत हमारी
हम इन्हे समझे ...

ना तो है हम डेमोक्रेट
और नहीं है हम रिपब्लिकन
बन भी गये अगर सिटीज़न
बन न पाएंगे अमेरिकन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
छुपेगी नहीं असलियत हमारी
हम इन्हे समझे ...

न डेमोक्रेट्स का प्लान
न रिपब्लिकन्स का वाँर
कर सकता है
हमारा उद्धार
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
पूछेगा नहीं कोइ खैरियत हमारी
हम इन्हे समझे ...

हम जो भी है
अपने श्रम से है
हम जहाँ भी है
अपने दम से है
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
काम आयेगी बस काबिलियत हमारी
हम इन्हे समझे ...

फूल तो है पर वो खुशबू नहीं
फल तो है पर वो स्वाद नहीं
हर तरह की आज़ादी है
फिर भी हम आबाद नहीं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
यहाँ लगेगी नहीं तबियत हमारी
हम इन्हे समझे ...

(अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान लिखी)
Due to popular demand, here is the literal translation of this poem in English.

Elections

Should Democrates win or Republicans win, We don't care
This country is not our country
So to understand them or to know them
Is not our priority

We came here in search of wealth
We came here to try our luck
Every day we keep thinking
One day we will go back home
Should Democrates win or Republicans win
My intentions will never change
So to understand them or to know them
Is not our priority

Neither are we Democrates
Nor are we Republicans
Even though we may be citizens
We will never be American
Should Democrates win or Republicans win
This reality can never be denied
So to understand them or to know them
Is not our priority

Neither the plan of Democrates
Nor the war of Republicans
Can ever be of any use to us
Should Democrates win or Republicans win
No one will ever look after our well being
So to understand them or to know them
Is not our priority

Whatever we are
It is all due to our hard work
Wherever we are
It is all due to our strong will
Should Democrates win or Republicans win
Only our skills and abilities will be useful to us
So to understand them or to know them
Is not our priority

Flowers are plenty but they don't have the same fragrance
Fruits are plenty but they don't have the same taste
We have all kinds of freedom
But we are still not happy
Should Democrates win or Republicans win
We will never be happy here
So to understand them or to know them
Is not our priority

Wednesday, December 19, 2007

हम सब 'एक' हैं

स्विच दबाते ही हो जाती है रोशनी सूरज की राह मैं तकता नहीं गुलाब मिल जाते हैं बारह महीने मौसम की राह मैं तकता नहीं इंटरनेट से मिल जाती हैं दुनिया की खबरें टीवी की राह मैं तकता नहीं ईमेल-मैसेंजर से हो जाती हैं बातें फोन की राह मैं तकता नहीं डिलिवर हो जाता हैं बना बनाया खाना बीवी की राह मैं तकता नहीं खुद की ज़रुरते हैं कुछ इतनी ज्यादा कारपूल की चाह मैं रखता नहीं होटले तमाम है हर एक शहर में लोगों के घर मैं रहता नहीं जो चाहता हूं वो मिल जाता मुझे है किसी की राह मैं तकता नहीं किसी की राह मैं तकता नहीं कोई राह मेरी भी तकता नहीं कपड़ो की सलवट की तरह रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं रिश्ता यहाँ कोई कायम रहता नहीं तत्काल परिणाम की आदत है सबको माइक्रोवेव में तो रिश्ता पकता नहीं किसी की राह मैं तकता नहीं कोई राह मेरी भी तकता नहीं सिएटल 19 दिसम्बर 2007

Saturday, December 15, 2007

वतन और वेतन


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अब तक कहीं भी लगा न मन
दौलत को ही किया सदा नमन
वतन फ़रामोश हम हैं वे तन
जिन्हें न मिला मुंहमांगा वेतन
तो वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

देश ने हमें क्या कुछ न दिया
गंगा जमुना जैसी पावन नदियां
संस्कृत भाषा और सुसंस्कृत लोग
वेद, पुराण, गीता और कर्मयोग

फ़िर भी हमें न रास आया
बाहर क्या ऐसा खास पाया?
कि वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

गलती से दशरथ के बाण से
श्रवण हाथ धो बैठा प्राण से
बाप से छूट गई बेटे की डोर
राम चले अभ्युदय की ओर

हमारे पिता से क्या भूल हुई
कि देश की मिट्टी धूल हुई
और वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

यशोधरा ने जन्मा राहुल को
जंजाल सा लगा बाबुल को
उठ के ऐसे भागे जैसे चोर
बुद्ध चले निर्वाण की ओर

ये किस जंजाल से भागे हम
कि अभी तक नहीं जागे हम
क्यूं वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

आज वतन से दूर हैं हम
झूठ है कि मजबूर हैं हम
बिकने वाले मज़दूर हैं हम
मतलबी और मगरूर हैं हम

छाया कुछ ऐसा ऐश्वर्य का सुरुर
कि एक के बाद एक वतन के नूर
सब वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

ध्येय हमारे सही नहीं
श्रद्धेय हमारे कोई नहीं
जिनके पदचिन्ह मार्ग बता सके
जिनके सत्कर्म हमे जता सके
कि कोस नहीं ईश्वर को
तू थाम ले इस वर को
डगर डगर भटकने वाले बंजारे
ठहर किसी एक का बन जा रे

Friday, December 14, 2007

रात के 12 बजे


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

घर बदला, नगर बदला
कुछ नहीं मगर बदला
तस्वीर वहीं रहती है फ़्रेम बदल जाती है
रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

जीवन का कारवां कुछ और बढ़ाया
लाँटरी भी खरीदी प्रसाद भी चढ़ाया
सुना है एसे भी तक़दीर बदल जाती है
रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

मौका हाथ में आते ही
संकट के बादल छाते ही
अच्छे-खासे लोगों की नीयत बदल जाती है
रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

क़मर झुकती है बाल भी पकते हैं
तन-बदन के साथ मन भी बदलते हैं
झूठ है कि आत्मा नहीं काया बदल जाती है
रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

Thursday, December 6, 2007

life की file

जब journey complete हो जाती है तब life की file delete हो जाती है धन दौलत इज़्ज़त शोहरत देह काया धन माया मौत के बाद obsolete हो जाती है Dean से पहचान हो पैसों की खान हो नदारद ईमान हो अगर ऐसे इंसान हो तो बिन पढ़े लिखे D. Litt. हो जाती है पापी पेट के मारे मिटे वर्ण-भेद सारे डिग्री मिले नौकरी मिले इसलिए हर जाति दलित हो जाती है अंग्रेज़ी बोलने से संगीत पर डोलने से टी-वी देखने से मन के द्वार खोलने से सुना है संस्कृति deplete हो जाती है सिएटल 6 दिसम्बर 2007

Wednesday, December 5, 2007

कैसे जताए अपने प्यार को

कैसे जताए अपने प्यार को चाहते हैं किसी और ही यार को हर मौसम का अपना अंदाज़ है कौन समझाए इन सदाबहार को जीत लेगा जो सबका दिल गले लगाएगा वहीं हार को जीत के भी सुख से जीता नहीं जीता जो उठा के हथियार को जान लेंगे जान लेने के बाद किस मर्ज़ ने मारा बीमार को मत है सब का कि मत मिलो मत न मिलें जिस उम्मीदवार को लेन देन से मेरा कुछ लेना देना नहीं क्या भेंट दू परवरदिगार को? परी सी बहू का बस एक वार विभाजित कर दे परिवार को जो चाहता हूं वो मिलता नहीं देख चूंका कई इश्तेहार को चाहे न चाहे सब चले जाएंगे समय न मानेगा इंकार को हाथ से छूट जाएगा सब सज़ा तो मिलेगी गुनहगार को सतयुग में जीना आसान था कलियुग भारी पड़ेगा अवतार को काश ये वक्त थम जाए यहीं सोचता हूं हर इतवार को सच खुद कह पाते नहीं कोसते हैं क्यूं अखबार को? बाजूओं में खुद के दम नहीं दोष देते हैं मझधार को सिएटल 5 दिसम्बर 2007

Tuesday, December 4, 2007

समय सारणी

रोज नौ से पाँच करता हूँ झूठ को सांच और कुछ नहीं तो करता हूँ तथ्यों की जांच सोमवार से शुक्रवार होता है यही लगातार शनि और रवि बदलती है छवि हँसता हूँ मैं हँसाता हूं मैं कुछ इस तरह ज़िन्दगी बीताता हूँ मैं गुज़ार देता हूँ जीवन बंध के एक समय सारणी में रह जाता हूँ फिर कर्मों का पहले सा ॠणी मैं सिएटल 4 दिसम्बर 2007

Monday, December 3, 2007

शुद्ध हिंदी - एक आईने में


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

जब तक देखा नहीं आईना
अपनी खामियां नज़र आई ना


काश ये दो पंक्तियां किसी महानुभाव ने कहीं होती। आपका दुर्भाग्य है कि ये मैंने लिखी हैं। ये मेरे उस प्रयास का परिणाम है जिसमें की दुसरी पंक्ति के आखरी के शब्द पहली पंक्ति के आखरी शब्द ही होते हैं। एक हल्का सा अंतर होता है। वो यह कि या तो वो संधि द्वारा बनाए जाते है या फिर संधि विच्छेद द्वारा।

चूंकि ये मेरी पंक्तियां हैं। तो ज़ाहिर है हर कोई इस पर अपनी टिप्पणी करता है। आप इतने निराशावादी क्यूं हैं? ये क्यूं नहीं कहते कि

जब तक देखा नहीं आईना
अपनी खूबियां नज़र आई ना


कहना उनका सही है। ग्लास को आधा खाली कहने के बजाय आधा भरा भी कहा जा सकता है।

आईना बहुत उपयोगी वस्तु है। इसका उपयोग रोज हर जाति, सम्प्रदाय, और देश में समान रुप से किया जाता है। ये बहुत ही सस्ते दामों पर सबको उपलब्ध है। चाहे कोई सुबह उठ कर अपने ईष्ट देव को स्मरण करे न करे, आईने के दर्शन जरूर करता है। स्त्री, पुरुष, बच्चे, और बूढ़े सब देखते हैं कि वे कितने सुंदर है और क्या सुधार किया जा सकता है ताकि वे और सुंदर देखे। लोग उन्हें देखे तो प्रसन्न हो।

एक और आयाम नज़र आता है आईने का। वो यह कि आईने से मनोरंजन भी होता है। गाँव के मेले में अक्सर एक खेमा जरूर होता हैं जिसमें कई तरह के आईने होते है जिनमे इंसान बारी बारी से कभी मोटा तो कभी पतला, कभी लम्बा तो कभी छोटा नज़र आता है।

और आईना प्रयोगशाला में एक उपकरण के रूप में काम आता है। इस को ले कर प्रकाश के नियम और गुण आदि के बारे में प्रयोग किये जाते हैं।

आईना बच्चों का खिलोना भी है। वे इससे आलोकित दायरे को दीवार और छत पर घुमाते रहते है और उनका कौतूहल कम होने का नाम नहीं लेता।

आईना सपाट होता है और स्वभाव से अत्यंत शीतल। जो छवि दिखाता है और सच्चाई के बिल्कुल विपरीत होती है और फिर भी कोई इसे दोषी नहीं ठहराता। सब स्वयं ही इसका आशय जान लेते है और इसका धन्यवाद देते हैं।

इन सब को ध्यान में रखते हुए, मैंने इस स्तम्भ का नाम आईना रखा है। कभी मनोरंजन करेगा तो कभी खूबीयां दिखाएगा तो कभी खामियां।

मुझे कविता लिखने की प्रेरणा कबीर के दोहो से मिली। मेरा मानना है कि उन के जैसा गागर में सागर भरने वाला और कोई नहीं। हास्य, व्यंग्य और दर्शन में वे पारंगत थे। उनका ये दोहा मुझे खास तौर से पसंद है -

रंगी को नारंगी कहे, बने दूध को खोया
चलती को गाड़ी कहे, देख कबीरा रोया।


सुना तो इसे आपने कई बार होगा। ये एक हिंदी फ़िल्म के गीत के शुरूआत में भी गाया गया है। इसे समझने के लिए इसे कई बार पढ़ना होगा। तीनों तथ्य एक से बड़ कर एक विडम्बना को उजागर करते है। नारंगी एक बेहद रंगीन फ़ल है और उसे दुनिया ने नारंगी का नाम दे दिया। जब दूध का खोया बना लिया जाता है तो वो आपके सामने है और दुनिया उसे कहती है खोया। जो वाहन है, चलायमान है उसे दुनिया कहती हैं गाड़ी! गाड़ी तो लकड़ी जाती है, गाड़े तो मुर्दे जाते हैं। गाड़ी का मतलब जो एक जगह पर अटक जाए। जो वहां से हिल न सके।

मुझे भी शब्दों से खेलना बहुत अच्छा लगता है। हर कविता में कुछ न कुछ शब्द आ ही जाते हैं जिनके दो अर्थ हो। ऐसी कविताएं फिर मैं blog पर प्रकाशित कर देता हूं और मित्रों को भेज देता हूं। पिछले एक साल से सिएटल शहर में हर महीने के चौथे शनिवार को मैं अपने घर एक काव्यगोष्ठी का आयोजन करता हूं। इसमें इस शहर में रहने वाले और कविता लिखने वाले या इसमें रचि रखने वाले सम्मिलित होते हैं। पिछले हफ़्ते मैं एक पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में गया था। वहाँ मेरा परिचय देते हुए कहा गया कि ये हर महीने नियमित रुप से गोष्ठी का आयोजन कर के हिंदी के सेवा कर रहे हैं। तो मेरे मन में तुरंत एक वाक्य कौंध गया - 'मैं मासिक धर्म निभा रहा हूं।' मैं सोचता रहा कि अगर मासिक धर्म लगातार चलता रहे और कभी ये क्रम टूटे नहीं तो सृजन कैसे होगा? और फिर मेरा शब्दो से खेल शुरु हो गया जो दूसरे दिन जा के रुका जब 'जन्म' कविता पूरी हो गई। ये एक संयोग ही था कि वो मेरा जन्म दिन भी था।

जन्म के पीछे कामुक कृत्य है
यह एक सर्वविदित सत्य है

कभी झुठलाया गया
तो कभी नकारा गया
हज़ार बार हमसे ये सच छुपाया गया

कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'

सोच के मंद मुस्करा देते थे वो
रंगीन गुब्बारे से बहला देते थे वो

बड़े हुए तो सत्य से पर्दे उठ गए
और बच्चों की तरह हम रुठ गए
जैसे एक सुहाना सपना टूट गया
और दुनिया से विश्वास उठ गया

ये मिट्टी है, मेरा घर नहीं
ये पत्थर है, कोई ईश्वर नहीं
ये देश है, मातृ-भूमि नहीं
ये ब्रह्मांड है, ब्रह्मा कहीं पर नहीं

एक बात समझ में आ गई
तो समझ बैठे खुद को ख़ुदा
घुस गए 'लैब' में
शांत करने अपनी क्षुदा

हर वस्तु की नाप तौल करे
न कर सके तो मखौल करे

वेदों को झुठलाते है हम
ईश्वर को नकारते है हम
तर्क से हर आस्था को मारते हैं हम

ईश्वर सामने आता नहीं
हमें कुछ समझाता नहीं

कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'

बादल गरज-बरस के छट जाते हैं
इंद्रधनुष के रंग बिखर जाते है


इस कविता को बहुतों ने पसंद किया। और नहीं भी किया तो कम से कम जन्मदिन की बधाईयां तो जरुर भेजी गई।

पर दो नई बातें सुनने में आई। एक तो ये कि ज्यादातर लोग खुश थे कि इस कविता में वेदो और ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारा गया है। दूसरा ये कि इसमें ज्यादातर शब्द हिंदी के थे। उर्दू के इक्का-दुक्का शब्द थे। मुझे सलाह दी गई कि आप हिंदी को भ्रष्ट होने से बचा ले। अगर ख़ुदा को कविता से जुदा कर दिया जाए तो अच्छा होगा।

सामान्यत: मैं अपने आप को कविता तक ही सीमित रखता हूं। कविता के अलावा कुछ नहीं कहता। और न ही कविता की सफ़ाई देता हूं। पर चूंकि अब मंच सामने हैं तो कुछ कहना चाहूंगा। मैं रतलाम में और रतलाम जिले में (शिवगढ़ और सैलाना) पला हूं। वहां पर हम मालवी या साधारण हिंदी बोलते थे। नई दुनिया एक मात्र अखबार था। उसे देने अखबार वाला आता था। अखबार का बिल आता था हर महीने। मेरे नाना गाँधीवादी थे और प्राथमिक विद्यालय चलाते थे जिसे लोग त्रिवेदी प्राईवेट स्कूल के नाम से जानते थे। देखिये, बिना अंग्रेज़ी और उर्दू के इतनी छोटी सी बात भी पूरी नहीं की जा सकी।

एक और उदाहरण। आप जाइये एक दूर-दराज के गाँव में जहाँ एक अधेड़ उम्र की माँ है जो कड़ी मेहनत कर के अपना घर चलाती है। उस के पास वक्त नहीं है कि वो या उसकी भाषा राजनीति से या फ़िल्मी दुनिया से या टीवी से प्रभावित हो। उससे आप कहिये कि - 'माई, तेरे बेटे के नम्बर अच्छे नहीं आए है इसलिए वो फ़ैल हो गया है। तू उसकी कोई अच्छी सी ट्यूशन लगा दे। हो सकता है वो अगली बार पास हो जाए।'

अब आप यहीं बात कह कर देखे बिना नम्बर, फ़ैल, ट्यूशन और पास के। बहुत मुश्किल है। और आप अगर शव्दकोश की सहायता से कह भी दे तो मैं नहीं समझता कि वो माँ उस बात को समझ पाएगी।

क्या फ़ायदा हैं इस तरह से हिंदी को संकीर्ण बनाए रखने की? आग भी उतना ही ठीक शब्द है जितना कि अग्नि। मुझे समझ नहीं आता है कि क्यूं कुछ लोग बात बात पर हिंदी का झंडा फ़हराने से बाज नहीं आते? खुद तो अंग्रेज़ी पढ़ लिख कर आगे निकल लिए। अब चाहते हैं कि बाकी लोग पीछे ही रहे तो बेहतर है। एक सज्जन तो यहाँ तक लिख बैठे कि 'हिंदी केवल गांव और गरीबों तक सीमित रह गई है। जैसे जैसे गरीबी हटती जाएगी, वैसे वैसे हिंदी मरती जाएगी।'

मेरे लिए ये एक सुखद घटना होगी। गरीबी हटाने का प्रयत्न कई वर्षो से किया जा रहा है। अगर हम इसमें सफ़ल हो गए तो ये एक हर्ष का विषय है। मातम मनाने का नहीं। रही बात हिंदी के मरने की। वो ऐसे तो मरने वाली है नही। और अगर मर भी गई तो कोई गम नहीं। मैं हमेशा से इस पक्ष में हूं कि इंसान बेकार में ही बटा हुआ है जाति में, प्रांत में, राज्य में, देश में, भाषा में, धर्म में। क्या ही अच्छा हो जब सारी सीमाएं हट जाए और हम सब आज़ादी से जहाँ जाना चाहे, जा सके। न पासपोर्ट की आवश्यकता हो और न हीं किसी दूसरी भाषा को जानने की ज़रुरत।

दूसरी बात भाषा भ्रष्ट होने की। नए शब्द जोड़ने से भाषा बलवान होती है, भ्रष्ट नहीं। शुद्धता सिर्फ़ शुद्धता की वजह से नही होनी चाहिए। प्राय: सारी शुद्ध वस्तुएं इतनी उपयोगी नहीं होती है जितनी कि मिलावट के बाद। 100% शुद्ध लोहा किसी काम का नहीं होता है। उसमें मिलावट कर के स्टील बनाया जाता है। 100% खरे सोने से भी आभूषण नहीं बनाए जा सकते हैं जब तक कि मिलावट न हो।

समृद्ध और खुश-हाल भारत

हाथी के दांत खाने के अलग और दिखाने के अलग होते हैं। यह बात समृद्ध और खुश-हाल भारत पर भी लागू होती है। एक तरफ़ हैं विप्रो के अज़िम प्रेमजी और रिलाएन्स का अम्बानी परिवार, दूसरी ओर हैं आत्महत्या करते हुए किसान। एक तरफ़ हैं कोक और पेप्सी, दूसरी ओर है पीने के पानी को तरसती हुई ग्रामीण जनता। असलियत यही है कि बावजूद इतनी तरक्की के आज भी भारत में कामयाब वही समझा जाता है जो देश छोड कर विदेश में धन अर्जित करता है। गांधी जी को सम्बोधित करते हुए मैंने लिखा है -
'भारत छोड़ो आन्दोलन हुआ है अब कामयाब,
मेरे वतन में एक भी होनहार नौजवां नहीं मिलता
'।   भारत छोड़ने की मेरी इच्छा कतई नहीं थी। हालांकि, मेरे पिता 1966 में इंग्लैंड जा भी चुके थे और 3 साल में पी-एच-डी ले कर आ भी गए थे। मैं 1986 में बनारस से इंजीनियरिंग खत्म कर चुका था और हाथ में एक सरकारी नौकरी भी थी। विदेश जा कर दर-दर की ठोकरे खाने में कोई तुक नहीं दिखाई दे रहा था। मैं आरामपसंद व्यक्ति हूँ। मेरे विचार में स्नातकोत्तर शिक्षा से आज तक किसी का भला नहीं हुआ है।
'कितनी निराली है शिक्षा प्रणाली,
'पास' होते होते सब दूर हो गए'।
  मेरे मामा मेट्रिक पास थे और अपने परिवार के हमेशा पास थे। उनके साथ मैंने कई सुखद गर्मी की छुट्टीयां बितायी है रुनखेड़ा में, जहां वे स्टेशन मास्टर थे। एक बार मुझसे 5 वीं कक्षा में पूछा गया था, क्या बनोंगे बड़े हो कर? मैंने कहा था, "स्टेशन मास्टर!"   बहरहाल, क्लाँस के सब साथी अमेरिका जा रहे थे सो मैं भी निकल पड़ा। और अगले चार साल तक मास्टर्स और एम-बी-ए के दौरान कई पापड़ बेले। मगर कहीं भी कड़वाहट महसूस नहीं हुई, अमेरिका में सब जगह खूब स्नेह मिला। दिक्कत थी तो बस एक कि भारत में सब कुछ बना-बनाया मिल जाता था। घर पर माँ थी और बनारस के होस्टल में महाराज था। यहाँ खुद ही दाल-रोटी बनाओ। बर्तन भी मांजो। कपड़े भी धोओ। झाडू फटका भी करो। 'चले थे बड़ी धूम से बादशाह बनने,
काम काज में फ़ंसे मज़दूर हो गए'
और ये सिलसिला अभी भी जारी है। बड़े से बड़े ओहदे वाला व्यक्ति खुद कार चलाता है, खुद सब्जी-भाजी खरीदता है, खुद कपड़े धोता है, खुद की चाय-काँफ़ी बनाता है, खुद झाड़ू-फ़टका करता है और खुद खाना भी बनाता है। हालांकि मशीनों - वाँशिंग मशीन, वैक्यूम क्लीनर - से आसानी जरूर हो जाती है। पर घर या दफ़्तर में कोई सेवा में हाज़िर नौकर नज़र नहीं आता है।   मैंने भारत में इन्जीनियरिंग की पढ़ाई अवश्य अंग्रेज़ी में की थी। मगर अंग्रेज़ी में कभी वार्तालाप नहीं किया था। अमेरिका में पेट पूजा के लिए कंप्यूटर प्रोग्रामिंग पढ़ाने लगा विश्वविध्यालय में। जाहिर है अंग्रेजी में ही पढ़ाना था। यह मेरे लिए एक गर्व की बात थी कि जिसने 5 वीं कक्षा तक ए बी सी डी तक नहीं सीखी थी, आज 20-25 अमरीकी नवयुवकों को उनकी ही भाषा में एक नई भाषा (पास्कल) सीखा रहा था। और मुझे अपने छात्रों से यथोचित सम्मान भी मिला। और तब मुझे शर्म आई यह सोच कर कि किस तरह हम नए अध्यापक का मज़ाक उड़ाया करते थे बनारस में।   ग्लानि इस बात की हमेशा रही कि 7 हज़ार मील की दूरी के बहाने से घर की सारी जिम्मेदारीयों से हाथ धो लिया। न किसी की शादी में शामिल हुए न किसी की बरसी में। न किसी के लिए नौकरी की सिफ़रिश की और न किसी की दवा-दारु की।  माँ की टक्कर हो गई थी स्कूटर से। कमर में काफ़ी चोट आई। बिस्तर पर रही हफ़्तों तक। मैं यहाँ टी-वी पर देखता रहा डायना और मदर टेरेसा का अंतिम सफ़र। फ़ोन से बातचीत जरुर होती थी। पर फ़ोन पर किसी को गले नहीं लगाया जा सकता। कंधे पर सर नहीं रख सकते। निगाहें नीची कर के थोड़ी देर चुप नहीं रह सकते। माँ माथे को चूम नहीं सकती। बालों को सहला नहीं सकती। गला भर आने पर पानी का ग्लास नहीं दे सकती।   सच! कितनी त्रासदी है एक एन आर आई के जीवन में।
'जब हम अपनों के नहीं हुए,
तो किसी और के क्या होंगे,
पूछ लो किसी भी कामयाब से,
किस्से यहीं बयां होंगे'
 
21 साल से यहाँ हूं। तब से आज तक यही सुनता आया हूँ - 'मेरा भारत महान'।
'परदेस में बस जाने के बाद,
चर्चे वतन के मशहूर हो गए'



'भारत बहुत तरक्की कर रहा है।' 'अमेरिका अपने आप को असुरक्षित समझ रहा है।' 'यहाँ की नौकरियाँ धीरे-धीरे बैंगलोर और हैदराबाद जा रही है।' आदि, आदि। इस वजह सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में अमरीकी कर्मचारीयों के पेट पर सीधा-सीधा वार हुआ है। जाहिर है उन्हें ये कतई पसंद नहीं है। कुछ राज्य सरकारों ने इसी कारण ये निर्णय लिया है कि वे किसी भी एसी संस्था को काम नहीं देंगे जिसके संबंध भारत की कंपनी से हैं। हालांकि इस निर्णय से खास फ़र्क नहीं आया है। चूंकि ये गिने-चुने राज्य तक ही सीमित है। नौकरियाँ तो जा ही रही हैं भारत की ओर, पर भारत से अब भी हज़ारो की तादात में नवयुवक आ रहे हैं। पहले वो आते थे उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए अपनी योग्यता के बल पर। आज आते हैं विप्रो, इन्फ़ोसिस आदि की छत्र-छाया में। वे आते हैं सस्ती दरों पर वही काम करने जिसे अमरीकी नागरिक कर रहा था महंगी दरों पर। तो जाहिर है, ऐसे भारतीय कर्मचारी अमरीकी जनता का सम्मान पाने में असमर्थ रहते हैं। पर इस वजह से कंपनी की बचत होती है और बहुत मुनाफ़ा। वाँल-स्ट्रीट भी खुश। अब आप सोच रहे होंगे कि चलो कम से कम कंपनी के मालिक तो इन भारतीय कर्मचारीयों की इज़्ज़्त करते होंगे। लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। जैसे कि आप घर बना रहे हैं और आपको मजदूर चाहिए जो ईंट, पत्थर, गारा उठा सके, मिला सके, और दीवारें खड़ी कर सके। ये काम आपके शहर के लोग कर सकते है 100 रुपये में और दूसरी तरफ़ हैं दूसरे शहर के लोग जो यह काम कर सकते हैं 70 रुपयें में। आप दूसरे शहर के कर्मचारियों से काम करा के 30 रुपये बचाएंगे जरूर मगर आप की नज़रों में उनकी इज़्ज़त नहीं बड़ जाएंगी। काम खत्म हुआ और आप अपने रस्ते और वो कर्मचारी अपने रस्ते पर। सम्मान अर्जित करने के लिए कुछ नया होना चाहिए। बजाए इसके कि आप कोई भी काम पूरा करने के लिए एक सस्ते मज़दूर की तरह हाज़िर हो जाएं। अगर आप इस घर की रूपरेखा तैयार करने वाले आँर्किटेक्ट हैं और आपका काम बहुत बेहतरीन है, तब स्वाभाविक है कि आपको प्रचुर सम्मान मिलेंगा। पिछले 10 साल में जो भारत के विकास की बात अमेरिका तक पहुँच रही है वो साँफ़्टवेयर सेवा तक ही सीमित है। और इस क्षेत्र में भारत एक सस्ते मज़दूर के रूप में देखा जा रहा है। एक मजे की बात और कि विप्रो, इन्फ़ोसिस की बदौलत अब भारत में साँफ़्टवेयर क्षेत्र में वेतन स्तरों में प्रचुर वृद्धि हुई है। इस कारण काफ़ी भारतीय जो अमरीका में बस गए थे अब भारत वापसी की तैयारी कर रहे हैं। रोज सुनने में आता है कि फलाना हिन्दुस्तान जा रहा है उस कंपनी में डायरेक्टर बन कर तो इस कंपनी में मैनेजर बन कर। मगर दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। भई सच पूछो तो अमेरिका में भेद-भाव है और उपर से झेलने अनगिनत उतार-चढ़ाव हैं जो नौकरी आज है वो कल नहीं चिन्ता रहती है हर पल यही अब तो भारत में भी नौकरिया ढेर हैं और मां-बाप के भी कबर में पैर हैं सोचता हूँ हिन्दुस्तान में बस जाऊँ बस पहले अमेरिकन सिटिज़न बन जाऊँ हर महफ़िल में हर आदमी इस बात की घोषणा करता है कि वो भारत का शुभचिंतक है। मेरा ये विचार है कि भारत का विकास हो, सम्पन्न हो खुशहाल हो, रोजी-रोटी सबके पास हो, सुनते ही कि डाँलर गिर गया, सारा बुखार उतर गया  अंत में निष्कर्ष यही कि हम यहाँ के रहन-सहन के, तौर-तरीको के और ज़रुरतों के आदि हो गए हैं। और डॉलर चाहे कितना भी गिर जाए उसकी खरीदी क्षमता दुनिया की बाकी मुद्राओ से ज्यादा ही रहेगी। यहाँ आदमी एक साल के वेतन में वो सब खरीद सकता है जिसे अन्य देशों के नागरिक कई सालों की कमाई में भी नहीं पा सकते है। पहले हम अपना भविष्य सुधारने आए थे। अब हम अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखना चाहते हैं। पहले मैं कहता था कि हम अभिमन्यू की तरह चक्रव्यूह में घुस तो गए हैं पर निकलने में असमर्थ हैं। अब लगता है कि ये कैंसंर की तरह एक ला-ईलाज मर्ज़ है। बाबुल चाहे सुदामा हो ससुराल चाहे सुहाना हो नया रिश्ता जोड़ने पर अपना घर छोड़ने पर दुल्हन जो होती है दो आँसू तो रोती है और इधर हर एक को खुशी होती है जब मातृभूमि संतान अपना खोती है क्यूं देश छोड़ने की इतनी सशक्त अभिलाषा है? क्या देश में सचमुच इतनी निराशा है? जाने कब क्या हो गया वजूद जो था खो गया ज़मीर जो था सो गया लकवा जैसे हो गया भेड़-चाल की दुनिया में देश अपना छोड़ दिया धनाड्यों की सेवा में नाम अपना जोड़ दिया अपनी समृद्ध संस्कृति से अपनी मधुर मातृभाषा से मुख अपना मोड़ लिया माँ बाप का दिया हुआ नाम तक छोड़ दिया घर छोड़ा देश छोड़ा सारे संस्कार छोड़े स्वार्थ के पीछे-पीछे कुछ इतना तेज दौड़ें कि न कोई संगी-साथी है न कोई अपना है मिलियन्स बन जाए यही एक सपना है करते-धरते अपनी मर्जी हैं पक्के मतलबी और गर्जी हैं उसूल तो अव्वल थे ही नहीं और हैं अगर तो वो फ़र्जी हैं पैसों के पुजारी बने स्टाँक्स के जुआरी बने दोनों हाथ कमाते हैं फिर भी क्यूं उधारी बने? किसी बात की कमी नहीं फिर क्यूं चिंताग्रस्त हैं? खाने-पीने को बहुत है फिर क्यूं रहते त्रस्त हैं? इन सब को देखते हुए उठते कुछ प्रश्न हैं पैसा कमाना क्या कुकर्म है? आखिर इसमें क्या जुर्म है? जुर्म नहीं, यह रोग है विलास भोगी जो लोग है 'पेरासाईट' की फ़ेहरिश्त में नाम उनके दर्ज हैं पद-पैसो के पीछे भागना एक ला-इलाज मर्ज़ है