Saturday, August 9, 2008

दोहरी ज़िंदगी

इस कड़वे संसार में
हम पवित्र प्रेम रस पी रहे हैं
तिस पर इलज़ाम ये कि
हम दोहरी ज़िंदगी जी रहे हैं

कहाँ तो लोग
ठीक से एक ज़िंदगी
नहीं जी पाते हैं
एक दूसरे के साथ
शांति से चाय तक
नहीं पी पाते हैं

क्या हर्ज़ है
जो हम
एक नहीं
दो दो ज़िंदगी
बखूबी जी रहे हैं

हम घंटो-घंटो
एक दूसरे की
बातें सुनते हैं
एक दूसरे का
दु:ख-दर्द समझते हैं
हँसते हैं
हँसाते हैं
एक दूसरे का
मान रखते हैं
एक दूसरे का
मन रखते हैं

फिर भी दुनिया वाले
इसे गलत कहते हैं
आखिर ऐसा भी क्या
गुनाह करते हैं?

बस ईश्वर की भेंट को
सहर्ष स्वीकार करते हैं
एक दूसरे से
बहुत बहुत प्यार करते हैं

कहने वाले
कहते रहे हैं
करने वाले
करते रहे हैं

एक लाल
एक पीली
या
दोहरी
जैसी भी है ये ज़िंदगी
इसे जीने का हक़
सिर्फ़
हमें हैं
हमें हैं

सिर्फ़ हमें!

सिएटल,
9 अगस्त 2008

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