Tuesday, September 9, 2008

जीते जी मरने की सज़ा

जाते जाते यार मुझे क्या दे गया
जीते जी मरने की सज़ा दे गया

रहता था खुश, स्वच्छंद था मैं
कली कली महके, ऐसी सुगंध था मैं
जागूँ सारी-सारी रात ऐसी दवा दे गया

न उससे बात करूँ, न मुलाकात करूँ
ज़र्द और ज़ब्त सब्ज़ जज़बात करूँ
ऐसी-वैसी कसम कई दफ़ा दे गया

कर के गया कुछ ऐसा बर्बाद मुझे
कि सांस भी लूँ तो आए याद मुझे
दिल ले कर बेरहम दमा दे गया

बचने की अब कोई उम्मीद नहीं
रोज़ ही रोज़े होगे, होगी ईद नहीं
प्यास न बुझे ऐसी यातना दे गया

मुक्ति की मेरी कोई तरकीब तो हो
चाहे मार ही डाले, कोई रक़ीब तो हो
यार मेरा जीने की बददुआ दे गया

सिएटल,
9 सितम्बर 2008

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5 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

अपने लाजवाब लिखा है.......इसमे भाव भी अच्छे हैं.....मन को छु रहे हैं

Anil Pusadkar said...

achha likha.badhai

फ़िरदौस ख़ान said...

बचने की अब कोई उम्मीद नहीं
रोज़ ही रोज़े होगे, होगी ईद नहीं
प्यास न बुझे ऐसी यातना दे गया

शानदार...

Udan Tashtari said...

बेहतरीन..

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

न उससे बात करूँ, न मुलाकात करूँ
ज़र्द और ज़ब्त सब्ज़ जज़बात करूँ
ऐसी-वैसी कसम कई दफ़ा दे गया

kya baat hai, wah wah