आभा है मेरी
मेरी ये बोली
पल-पल हँसाए मुझे
कर के ठिठोली
भगवा जो पहने
भगवान चाहे
अपना जो समझे
अपनाना चाहे
वे जनती हैं बच्चे
जनाना कहलाए
वे बहते हैं टप-टप,
बहाना कहलाए
पी ली जो बोतल
खाली कहे सब
खा ली जो रोटी
पीली बने सब
मेरी मिली और
मेरी ये बोली
प्रिये है प्रिय मुझे
तेरी ये बोली
प्यारी ये भाषा
है कितनी भोली
जो हुई नहीं
उसे कहती है होली
जब भाषा में हो
गूढ़ गुण इतने सारे
क्यूँ न लगे जग में
'जय हो' के नारे
सिएटल 425-898-9325
30 अगस्त 2009
Sunday, August 30, 2009
मेरी ये बोली
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:30 PM
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Saturday, August 29, 2009
पहेली 31
खाऊँ जो एक तो हो जाऊँ मैं चित्त
खा लूँ जो तीन तो हो जाऊँ मैं ठीक
खा के जिसे जवां होते शहीद
खाते उसे बच्चे खुशी से खरीद
कैसा ये जादू है? कैसी है ये माया?
समझा वही जो रंगोली देख पाया
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
पहेली 30 का उत्तर
एक अच्छा खासा इंसान
फ़ौरन बन जाए हैवान
मानो मिल जाए माचिस
और जल जाए मकान
पी ले पीलें जाम
हो जाए तबियत हरी
आव देखे न ताव
कह दे बातें खरी
ये कैसा पदार्थ उसने पिया?
कि कोई भी उसे न कहे पिया?
हर कोई कहे रंगीला उसे
न राधा चाहे न शीला उसे
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
उत्तर: नशीला
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:07 PM
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Sunday, August 23, 2009
धर्मरक्षक
मैं एक इंजीनियर हूँ
और भारत से बाहर रहता हूँ
लेकिन मुझमें भारतीय संस्कार अभी भी बरकरार है
अभी कुछ दिन पहले की बात है
एक मंदिर बनाने के लिए धन इकट्ठा किया जा रहा था
मैंने भी तुरंत डेड़ सौ डालर का चैक काट कर दे दिया
अरे भई हम अपने धर्म की रक्षा नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
और मंदिर में अपने नाम की एक टाईल भी लगवा ली
उसके लिए अलग से 250 डालर दिए
साथ में अपनी पत्नी और बच्चों का भी नाम लिखवा दिया
अरे नाम तो मैं अपने माता-पिता का भी लिखवा देता
लेकिन क्या करूँ
वे अभी ज़िंदा हैं
******
अब मैं हर रविवार मंदिर जाता हूँ
आरती में
कीर्तन में
हिस्सा लेता हूँ
अपने बच्चों को भी साथ ले जाता हूँ
ताकि अपनी संस्कृति की पहचान अगली पीढ़ी में बनी रहे
अपने घर में
पूजा पाठ कहाँ हो पाती है?
पहले ही जीवन में भागदौड़ इतनी है
कि अब पूजा-पाठ की मुसीबत कौन सर पर ले?
उन्हें नहलायो-धुलायों, पोशाक पहनाओं, तिलक लगाओं
दीप जलाओ, अगरबत्ती लगाओ
ऊफ़! कितनी आफ़त है
और उपर से दीपक और अगरबत्ती से कारपेट पर कालिख और बढ़ जाती है
साफ़ ही नहीं होती
मंदिर में पुजारी जी है
जो सब सम्हाल लेते हैं
उन्हें समय से उठाते हैं, सुलाते हैं, खिलाते हैं
हम हफ़्ते में एक दिन जाकर माथा टेक आते हैं
हुंडी में कुछ दान-दक्षिणा डाल आते हैं
वे भी खुश
हम भी खुश
और जैसा कि मैंने आपसे कहा
बावजूद इसके कि
मैं एक इंजीनियर हूँ
और भारत से बाहर रहता हूँ
मुझमें भारतीय संस्कार अभी भी मौजूद है
और तो और
मैं अपने माता-पिता को ईश्वर का दर्जा देता हूँ
मैं हर साल भारत जाता हूँ
कभी क्रिसमस की छुट्टी पर
तो कभी गर्मी की छुट्टी पर
उनसे मिल कर आता हूँ
अपने बच्चों को भी साथ ले जाता हूँ
ताकि अपने पूर्वजों की पहचान अगली पीढ़ी में बनी रहे
इस परदेस में
उनकी देख-रेख कहाँ हो पाती?
पहले ही जीवन में भागदौड़ इतनी है
कि अब उनकी मुसीबत कौन सर पर ले?
उनके साथ बात करो, उन्हें डाक्टर के पास ले जाओ, उनके लिए अलग भोजन बनाओ
ऊफ़! कितनी आफ़त है
और उपर से रोज़ रोज साड़ी, धोती वाशिंग मशीन में कहाँ धुल पाती हैं
और बाथटब में धोओ तो रंग अलग से निकलता है
बाथरूम इतने गंदे हो जाते हैं
कि साफ़ ही नहीं होते
भारत में एक आया है
जो सब सम्हाल लेती है
उन्हें समय से खिलाती है, पिलाती है, दवाई देती है, मालिश करती है
हम साल में एक बार जाकर उनसे आशीर्वाद ले आते हैं
आया को उपहार दे आते हैं
वह भी खुश
हम भी खुश
सिएटल 425-898-9325
23 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:18 PM
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Saturday, August 22, 2009
पहेली 30
एक अच्छा खासा इंसान
फ़ौरन बन जाए हैवान
मानो मिल जाए माचिस
और जल जाए मकान
पी ले पीलें जाम
हो जाए तबियत हरी
आव देखे न ताव
कह दे बातें खरी
ये कैसा पदार्थ उसने पिया?
कि कोई भी उसे न कहे पिया?
हर कोई कहे रंगीला उसे
न राधा चाहे न शीला उसे
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
उदाहरण के लिए देखें पहेली 28 और उसका हल।
Friday, August 21, 2009
पहेली 29 का उत्तर
पहेली
मन में उठी कुछ ऐसी ??? (3)
पसीने से नहा, हुआ ?? ?? (4)
काँप रहा था हर ?? ?? (4)
कोई था वहाँ, जहाँ था ??? (3)
उत्तर
मन में उठी कुछ ऐसी तरंग
पसीने से नहा, हुआ तर अंग
काँप रहा था हर पल अंग
कोई था वहाँ, जहाँ था पलंग
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:59 PM
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पहेली 28 का उत्तर
पहेली
खिलते हैं फूल
बिखेरते हैं रंग
गाँव-गाँव
गली-गली
उड़ती है पतंग
इसके होते ही शुरू
होता है शरद का अंत
इस पर लिख कर गए
कवि निराला और पंत
मंदबुद्धि मैं
और आप अकलमंद
आप ही सुलझाए
मेरे मन का ये द्वंद
बस के पीछे तो होता है
बस काला धुआँ
फिर इसका नामकरण
क्यों ऐसा हुआ?
व और ब में कभी होता होगा फ़र्क
आज तो भाषा का पूरा बेड़ा है गर्क
गंगा को गङ्गा को लिखने वाले बचे हैं कम
ङ और ञ को कर गई बिंदी हजम
हिंदी और हिंदीभाषी का होगा शीघ्र ही अंत
ऐसी घोषणा कर रहे हैं ज्ञानी-ध्यानी-महंत
ब-नाम से हम-तुम आज पहचानते जिसे
बोलो क्या कहते थे ॠषि व संत उसे?
सिएटल,
28 जनवरी 2009
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
उत्तर:
वसंत
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:54 PM
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Thursday, August 20, 2009
मस्त-मौला चाँद
होता होगा सूरज में
चाँद से ज्यादा प्रकाश
लेकिन चाँद भी अपना मस्त है
और सूरज से कम नहीं है खास
एक राज़ की बात बताऊँ?
चाँद है निर्भीक
और सूरज है डरपोक
तभी तो रात को कभी बाहर निकलता नहीं है
और चाँद?
अपनी मर्जी का मालिक
अपनी धुन में मस्त
जब मन चाहे उगे
जब चाहे अस्त
न सूरज से डरे
न तारों से डरे
सब के सामने
सर उठा के चले
और कभी कभी तो
ऐसी गोली दे जाए
कि कहीं न दिखे
अरे भई
किसी के बाप के नौकर थोड़े ही है
जो रोज-रोज अपनी सूरत दिखाते फिरे?
सिएटल 425-898-9325
20 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:51 PM
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Wednesday, August 19, 2009
भारत छोड़ो आंदोलन
गुर्रु विसा
सुरूर भागने का सब पे चढ़ा
है भारत वो आज कहाँ
जो अंग्रेजों से था कभी लड़ा
जहाँ डाल-डाल पे उड़ने को
आतुर बैठी है चिड़िया
वो भारत देश है भैया
जहाँ सत्य, अहिंसा और धरम की
पग-पग उड़ती धज्जियाँ
वो भारत देश है भैया
जहाँ जो भी परिंदा
घर से निकला
लौट के फिर न आया
शौच के ढंग ने
सोच यूँ बदली
परदेस उसको भाया
भुल गया वो अपनी माटी,
अपने बापू-मैया
वो भारत देश है भैया
ये धरती वो
जहाँ ॠषि-मुनि
जपते प्रभु नाम की माला
हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ
जहाँ अन्याय होता देख भी
उनके मुँह पे रहता ताला
जहाँ ईश्वर सबसे पहले खाए,
खाए खीर-सेवईयाँ
वो भारत देश है भैया
जहाँ आसमान से बाते करते,
नेता और सितारें
किसी नगर में, किसी समय पे,
किसी के काम न आते
उल्टा ठूँस-ठूँस वे माल दबाए,
दबाए करोड़ों रुपया
वो भारत देश है भैया
सिएटल 425-898-9325
19 अगस्त 2009
(राजेन्द्र कृष्ण से क्षमायाचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:54 PM
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Tuesday, August 18, 2009
मोम
जलती है डोर
पिघलता है मोम
धीरे-धीरे इंसां
मरता है रोज़
जो जल चुका
उसे जलाते हैं लोग
कैसे कैसे
नादां है लोग
मौत भी जिसका
इलाज नहीं
पुनर्जन्म है एक
ऐसा रोग
घर बसाना
है एक ऐसा यज्ञ
जीवन जिसमें
हो जाए होम
जो भुल चुका
हर भूल-चूक
इंसां वही
पाता है मोक्ष
कर्मरत रहो
मुझसे कहता है जो
आसन पे बैठ
खुद जपता है ॐ
रोम-रोम में
बस
बस जाए वो
फिर कैसी काशी,
कैसा रोम?
सिएटल 425-898-9325
18 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:47 PM
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Friday, August 14, 2009
5237 वीं जन्माष्टमी?
कितनी अजीब बात है
कि हमें उनका जन्मवर्ष तो ठीक से ज्ञात नहीं
लेकिन उनके जन्म की घड़ी है अच्छी तरह से याद
जबकि उस ज़माने में घड़ी थी ही नहीं
और अब
ग्रीनविच से घड़ी मिलाकर के
वृंदावन के लोग
रात के ठीक बारह बजे
मनाते हैं श्री कृष्ण का
न जाने कौन सा जन्मदिन
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:38 PM
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Tuesday, August 11, 2009
15 अगस्त की याद में
हम थे अलग
इसलिए हुए अलग
या
हुए अलग
इसलिए अब हैं अलग?
'बिग बैंग' के नाद ने हमें
कर दिया जिनसे दूर
कोशिश उनसे मिलने की
हम करते हैं भरपूर
लेकिन पास-पड़ोस में जो रहते हैं
उनसे करें न प्यार
खड़ी हैं कई दीवारें
जिनके बंद पड़े हैं द्वार
छोटी सी इस धरती पर
जब-जब खींची गई रेखाएँ
नए-नए परचम बने हैं
और गढ़ी गई कई गाथाएँ
अब सब खुद को हसीं बताते हैं
और औरों की हँसी उड़ाते हैं
हम ऐसे हैं, हम वैसे हैं
कह-कह के वैमनस्य बढ़ाते हैं
हम सही और तुम गलत
जब राष्ट्र-प्रेम के परिचायक बन जाते हैं
तब इस वाद-विवाद की वादी में
हम सुध-बुध अपनी खोने लगते हैं
और दूर दराज के ग्रहों पर
विवेक खोजने लग जाते हैं
सिएटल,
11 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:51 PM
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Sunday, August 9, 2009
मसला
हर मसला
'मसल' से
मसला नहीं जाता
हो चौखट पे सैलाब
तो उससे लड़ा नहीं जाता
जब से सुना
कि लकीरों में तक़दीर है मेरी
मेरे हाथों से
मेरा हाथ
मला नहीं जाता
समंदर में मंदिर
कहीं छुपा है ज़रूर
बिन जूते उतारे
उसमे उतरा नहीं जाता
जब भी सँवरती हैं,
बहुत बिगड़ती हैं ज़ुल्फ़ें
कहती हैं
क्यों आज़ाद हमें रखा नहीं जाता?
मुझे होती समझ
तो तुम्हें न बताता?
कि कुछ होती हैं बातें
जिन्हें कहा नहीं जाता
सिएटल
9 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:15 PM
आपका क्या कहना है??
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Thursday, August 6, 2009
मय न होती तो क्या होता?
मय न होती तो क्या होता?
नस्ल का मसला बढ़ गया होता
तू-तू मैं-मैं होती रहती
जल्दी खत्म न झगड़ा होता
न साकी होता, न सलीका होता
प्रेम-प्यार का रंग फ़ीका होता
शेर-ओ-शायरी की बात छोड़िए
ग़ालिब तक न पैदा होता
देवदास को हम जान न पाते
नीरज से वंचित रह जाते
रास-रंग का साथ न होता
आदमी बहुत बेसहारा होता
न पीते लोग, न पिलाते लोग
नपे-नपाए रह जाते लोग
मन में कोई आग न होती
अवतरित न कोई मसीहा होता
वे पागल हैं, वे बचकाने हैं
जो मय को बुरा बताते हैं
इक मय ने ही हमें संयम में रखा
वरना बुत साबूत कोई बचा ना होता
मय और माया का साथ पुराना
मय बिना जीवन बेगाना
यह न होती हम न होते
ब्रह्मा ने ब्रह्माण्ड तक रचा ना होता
सिएटल,
6 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:30 PM
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Tuesday, August 4, 2009
मेल और ई-मेल
मेल थी सुस्त
ई-मेल है चुस्त
मेल थी महंगी
ई-मेल है मुफ़्त
ई-मेल का सिलसिला हुआ शुरु
डाकिये का आना जाना हो गया बंद
पड़ोसी भी भेजने लगे ई-मेल
और मेल-मिलाप का हो गया अंत
मेल में कई बाधाएं थीं
नाप तोल की सीमाएं थीं
फिर भी साथ ले आते थे
छोटे लिफ़ाफ़ो में बहनों का गर्व
हर भैया दूज और राखी के पर्व
मेल में कई बाधाएं थीं
नाप तोल की सीमाएं थीं
फिर भी साथ ले आते थे
होठों की लाली, हल्दी के निशां
जो जता देते थे प्रेम, कुछ लिखे बिना
मेल में कई बाधाएं थीं
नाप तोल की सीमाएं थीं
फिर भी साथ ले आते थे
माँ के आंसूओं से मिटते अक्षर
जो अभी तक अंकित हैं दिल के अंदर
मेल में कई बाधाएं थीं
नाप तोल की सीमाएं थीं
ई-मेल में नहीं कोई रोक-टोक
बकबक करे या भेजे 'जोक'
पूरे करें आप अपने शौक
किस काम का ये बेलगाम विस्तार?
समाता नहीं जिसमें अपनों का प्यार
गिगाबाईट का फ़ोल्डर गया है भर
एक भी खत नहीं उसमें मगर
जो मुझको आश्वासित करे
न सी-सी हो न बी-सी-सी हो
मुझको बस सम्बोधित करे
आदमी या तो है आरामपरस्त
या फिर है कुछ इस कदर व्यस्त
कि थोक में बनाता पैगाम है
ऑटो सिग्नेचर से करता प्रणाम है
सब हैं सुविधा के नशे में धुत्त
धीरे धीरे सब हो रहा है लुप्त
मेल थी सुस्त
ई-मेल है चुस्त
मेल थी महंगी
ई-मेल है मुफ़्त
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:49 PM
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Labels: digital age, misc
Saturday, August 1, 2009
जी-पी-एस
मैं
अच्छी तरह से वाकिफ़ हूँ
शहर के चप्पे-चप्पे से
हर ऊँचे-नीचे
टेढ़े-मेढ़े रास्ते से
एवेन्यू से, स्ट्रीट से
पार्कवे से, कल-डि-सेक से,
हर कोर्ट से,
हर लेन से,
मैं अच्छी तरह से वाकिफ़ हूँ
कौन सी सड़क कहाँ जा कर
चुपचाप अपना नाम बदल लेती है
चेरी से जैम्स
और सहाली से 228th बन जाती है
मैं यह भी जानता हूँ कि
कौन सी सड़क खत्म होने पर भी खत्म नहीं होती
और दुबारा जन्म ले लेती है झील के उस पार
मैं
अच्छी तरह से वाकिफ़ हूँ
शहर के चप्पे-चप्पे से
लेकिन फिर भी
जी-पी-एस साथ लेकर चलता हूँ
इसलिए नहीं कि वो मुझे रास्ता बता सके
बल्कि इसलिए कि
जब वो कहे - यहाँ मुड़ो
मैं न मुड़ूँ
और
कुछ क्षणों के लिए
महसूस कर सकूँ
कि अपनी मर्जी का मालिक होना
किसे कहते हैं
सिएटल,
1 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:18 AM
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Labels: August Read, digital age, intense, March2, MM, new, relationship, TG
बीयर ज्ञान
मैंने बीयर नहीं पी आज तक
कि कभी गाड़ी पकड़ गई रफ़्तार
तो कोई पुलिसवाला रोक के
कर न ले मुझे गिरफ़्तार
और उन साहब को देखिए
वो क्या हुए गिरफ़्तार
कि व्हाईट हाऊस में बुलाकर
बीयर पिला रही सरकार
पढ़त-पढ़त अख़बार के
मुझे भी मिल गया ज्ञान
कि लड़ने-भिड़ने के बाद ही
जग से मिलता है सम्मान
सिएटल,
1 अगस्त 2009