Sunday, August 30, 2009

मेरी ये बोली

आभा है मेरी
मेरी ये बोली
पल-पल हँसाए मुझे
कर के ठिठोली

भगवा जो पहने
भगवान चाहे
अपना जो समझे
अपनाना चाहे

वे जनती हैं बच्चे
जनाना कहलाए
वे बहते हैं टप-टप,
बहाना कहलाए

पी ली जो बोतल
खाली कहे सब
खा ली जो रोटी
पीली बने सब

मेरी मिली और
मेरी ये बोली
प्रिये है प्रिय मुझे
तेरी ये बोली

प्यारी ये भाषा
है कितनी भोली
जो हुई नहीं
उसे कहती है होली

जब भाषा में हो
गूढ़ गुण इतने सारे
क्यूँ न लगे जग में
'जय हो' के नारे

सिएटल 425-898-9325
30 अगस्त 2009

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1 comments:

Sapana said...

Very nice poem.
Sapana