आभा है मेरी
मेरी ये बोली
पल-पल हँसाए मुझे
कर के ठिठोली
भगवा जो पहने
भगवान चाहे
अपना जो समझे
अपनाना चाहे
वे जनती हैं बच्चे
जनाना कहलाए
वे बहते हैं टप-टप,
बहाना कहलाए
पी ली जो बोतल
खाली कहे सब
खा ली जो रोटी
पीली बने सब
मेरी मिली और
मेरी ये बोली
प्रिये है प्रिय मुझे
तेरी ये बोली
प्यारी ये भाषा
है कितनी भोली
जो हुई नहीं
उसे कहती है होली
जब भाषा में हो
गूढ़ गुण इतने सारे
क्यूँ न लगे जग में
'जय हो' के नारे
सिएटल 425-898-9325
30 अगस्त 2009
Sunday, August 30, 2009
मेरी ये बोली
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:30 PM
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1 comments:
Very nice poem.
Sapana
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