Tuesday, August 18, 2009

मोम

जलती है डोर
पिघलता है मोम
धीरे-धीरे इंसां
मरता है रोज़

जो जल चुका
उसे जलाते हैं लोग
कैसे कैसे
नादां है लोग

मौत भी जिसका
इलाज नहीं
पुनर्जन्म है एक
ऐसा रोग

घर बसाना
है एक ऐसा यज्ञ
जीवन जिसमें
हो जाए होम

जो भुल चुका
हर भूल-चूक
इंसां वही
पाता है मोक्ष

कर्मरत रहो
मुझसे कहता है जो
आसन पे बैठ
खुद जपता है ॐ

रोम-रोम में
बस
बस जाए वो
फिर कैसी काशी,
कैसा रोम?

सिएटल 425-898-9325
18 अगस्त 2009

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