जलती है डोर
पिघलता है मोम
धीरे-धीरे इंसां
मरता है रोज़
जो जल चुका
उसे जलाते हैं लोग
कैसे कैसे
नादां है लोग
मौत भी जिसका
इलाज नहीं
पुनर्जन्म है एक
ऐसा रोग
घर बसाना
है एक ऐसा यज्ञ
जीवन जिसमें
हो जाए होम
जो भुल चुका
हर भूल-चूक
इंसां वही
पाता है मोक्ष
कर्मरत रहो
मुझसे कहता है जो
आसन पे बैठ
खुद जपता है ॐ
रोम-रोम में
बस
बस जाए वो
फिर कैसी काशी,
कैसा रोम?
सिएटल 425-898-9325
18 अगस्त 2009
Tuesday, August 18, 2009
मोम
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:47 PM
आपका क्या कहना है??
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1 comments:
प्रभावशाली रचना
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ना लाओ ज़माने को तेरे-मेरे बीच
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