Friday, November 9, 2012

भूनी हुई मूंगफ़लियाँ

आज दस्तानें पहनते ही शिमला की भूनी हुई मूंगफ़लियाँ याद आ गई
जो हम समर हिल से शिमला स्कूल जाते वक्त खाते जाते थे


समर हिल के एक टीले पर
एक बूढ़े के
झुर्रीदार हाथों से
गरमागरम मूंगफ़लियाँ खरीदी जाती थी
(पैसे तुम ही देती थी)
और सारे रास्ते खाई जाती थीं


न जाने छिलकों का क्या करते थे
शायद फ़ेंक ही देते होंगे
शाम को पैदल आते तो शायद वे बिखरे हुए मिल भी जाते
लेकिन लौटते वक्त तो
दौड़-भाग कर 5:25 की ट्रैन पकड़ ही लेते थे
वो भी बिना टिकट के
और फिर प्लेटफ़ार्म की दूसरी तरफ़ से उतर कर
पटरियाँ उलांघ कर गिडियन कॉटेज की ओर निकल जाते थे


अगले दिन भी छिलके कभी दिखे नहीं
या कहो कि देखे ही नहीं


जब साथ हो
और कहने को कोई बात हो
(एक नहीं, ढेर सारी बात हो)
तो कौन भला कचरे को देखता है?


9 नवम्बर 2012
सिएटल ।
513-341-6798

इससे जुड़ीं अन्य प्रविष्ठियां भी पढ़ें


1 comments:

Anonymous said...

पहले सिसिल होटल के सामने का गज़ीबो और अब रास्ते की गरमागरम मूंगफ़लियाँ?? शिमला स्कूल का सफ़र तो बहुत ही special होता होगा! :)

इस कविता में parenthesis के use से छोटी-छोटी बातें add करना बहुत नया और प्यारा लगा - "पैसे तुम ही देती थी" और "एक नहीं, ढेर सारी बात हो"।