Friday, October 12, 2007

मेल-जोल

एक ही देश से आए हैं एक ही शहर में रहते हैं सपने हमारे एक हैं काम भी एक ही करते हैं जब हम इतने मिलते-जुलते हैं तो फिर कम क्यूं मिलते-जुलते हैं? नाक-नक़्श एक है वेश-परिवेश भी एक है गाना-बजाना एक है ज्ञान-ध्यान भी एक है खुशबू एक ही होती है जब टिफ़िन हमारे खुलते हैं जब हम इतने मिलते-जुलते हैं तो फिर कम क्यूं मिलते-जुलते हैं? जिम्मेदारियों का बोझ हैं दस परेशानियाँ रोज हैं हमसे बंधी किसी की आशा है तो किसी को मिली निराशा है हाँ दिल हमारे भी टूटते हैं इंसान हैं हम क्यूं भुलते हैं? जब हम इतने मिलते-जुलते हैं तो फिर कम क्यूं मिलते-जुलते हैं? खुशीयाँ तो हम बाँटते हैं ग़म क्यूं अकेले काटते हैं? शर्मनाक कोई दुःख नहीं दुःख क्यूं सब से छुपाते हैं? कांटे तो होंगे ही वहाँ जो बाग फ़लते-फ़ूलते हैं जब हम इतने मिलते-जुलते हैं तो आओ चलो फ़िर मिलते हैं 12 अक्टूबर 2007

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2 comments:

उन्मुक्त said...

अच्छी कवितायें हैं लिखते चलिये।

Udan Tashtari said...

बढ़िया है. शुभकामनायें.