Tuesday, August 5, 2008

कुछ ना पके क्या खाऊँ मैं

कुछ ना पके क्या खाऊँ मैं
तुम्हरे बिना, किचन सूना

जलते गया बैंगन भर्ता
इस दाल का न लगा तड़का
कुछ ना पके ...

दोनों बर्नर, मुझसे बुझे
तेरे बिना कुछ भी न सुझे
कुछ ना पके ...

कब तक रहूँ धनिया खाके
गई तुम कहाँ मुझको भुलाके
कुछ ना पके ..

पनीर मन को पंख लगाए
ज़ुबां पे रिमझिम रस बरसाए
बूंदी का रायता
रोटी पे घी
कुछ ना पके ..

सिएटल,
5 अगस्त 2008
(शैलेंद्र से क्षमायाचना सहित)

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Shailendra


2 comments:

Udan Tashtari said...

हा हा!! आटे दाल का भाव समझ आ गया?? :)

बहुत खूब!!

art said...

bhookh hi lag aayi padh kar