मैं आब हूँ
मगर बेताब नहीं हूँ
आपे से बाहर हो जाऊँ
इतना बदहवास नहीं हूँ
कि उठूँ और उठ के
सबको डूबो दूँ
मैं सर से कदम तक
लबलबाता
सैलाब नहीँ हूँ
मैं सोता हूँ
बहता हूँ
गुज़रता हूँ बागों से
हरी-भरी क्यारियोँ में
मिलता हूँ प्यासों से
मैं आब हूँ
मगर तेज धार नहीं हूँ
कि गिरूँ और गिर के
सबको मिटा दूँ
मैं उपर से नीचे
भड़भड़ाता
प्रपात नहीँ हूँ
अंजलि भरो
भर के मुँह से लगा लो
घड़े भरो
भर के सर पे बिठा लो
तुम जैसे कहो
बिलकुल वैसे रहूँ मैं
जिस रूप में भी ढालो
उस रूप में ढलूँ मैं
लोटे में
बाल्टी में
किसी में भी डालो
ठंडे में
गरम में
किसी में मिला लो
मैं आब हूँ
मगर 'फ़ेक' आब नहीँ हूँ
कि पल भर चमकूँ
और गायब हो जाऊँ
मैं सूरज के भय से
सकपकाता
शब-आब नहीँ हूँ
धरा से परे
तुमने जहाँ धरा कदम है
न पा के मुझे
किया किस्सा खतम है
तुम मुझ पे हो निर्भर
मुझ बिन निर्बल
मुझ से है जीवन
जलते हो मुझ बिन
मैं आब हूँ
मगर तेजाब नहीं हूँ
कि छल से छलकूँ
और सबको सताऊँ
मैं तिरिया के नैनों में
डबडबाता
बे-हिस-आब नहीँ हूँ
सिएटल 425-898-9325
1 अक्टूबर 2009
====================
आब = पानी
प्रपात = झरना
फ़ेक = fake
शब-आब = ओस
बे-हिस = भाव रहित
Thursday, October 1, 2009
मैं आब हूँ, मगर …
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:43 PM
आपका क्या कहना है??
2 पाठकों ने टिप्पणी देने के लिए यहां क्लिक किया है। आप भी टिप्पणी दें।
Labels: intense, nature, new, relationship
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
आब हैं वो तो ठीक है लेकिन कमेंट बक्सा इत्ती दूर काहे रखे हैं पोस्ट से?
Good one
Post a Comment