टीवी जिसे कहते हैं
दु:खों का कटोरा है
हिंसा की दीं कभी ख़बरें
तो कभी दंगों को निचोड़ा है
कोराना-सा कोई वायरस
इमरजेंसी का कोई आलम
हर वक़्त का रोना तो
बेकार का रोना है
चैनल का रिपोर्टर तो
आदत से है लाचार
'गर गुलशन भी वह देखे
तो कहे काँटों का बिछाना है
सी-एन-एन हो कि आज तक
सब बढ़-चढ़ के डराते हैं
जैसे दुनिया का अंत
बस आज ही होना है
घण्टों-घण्टों की कवरेज
फिर भी न कुछ हासिल
ले-दे के बस अंत में
हाथ ही तो धोना है
(निदा फ़ाज़ली से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 4 मार्च 2020 । सिएटल
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