आँखों में आँखें डाल के
आता है जो क़रार
व्हाट्सैप की दुनिया में
कहाँ है वो मेरे यार
दहशत की ज़िन्दगी में
अरमां तो फ़ना होने ही थे
जीते जी मरने का
नाम ही है दूजा प्यार
क़त्ल करते थे जो मेरा कभी
घरों में बन्द हैं आज
मेरी मौत मेरे ही हाथों
लिखी है लक्ष्मण रेखा पार
मोहब्बत में दम होता
तो मोहब्बत का नाम भी होता
और यूँ न होता तेरा-मेरा
पृथक-पृथक संसार
किसी एक की ये बात नहीं है
सबका एक ही है हाल
क्या मज़हब और क्या माशूक़
सबके बन्द हैं द्वार
किसकी क़िस्मत किससे अच्छी
समझ न पाए कोई
जो गुज़र गए वो सुखी हुए
या बचे-खुचे परिवार
शायर हूँ, बदनाम भी
पर क्यूँ डालूँ हथियार
पिक्चर अभी बाक़ी है
जाऊँगा न मान के हार
राहुल उपाध्याय । 31 मार्च 2020 । सिएटल
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