कुछ आते हैं उग
कुछ उगाता हूँ मैं
हर शाम
दर्द की फसल उगाता हूँ मैं
टेबल लैम्प की
पीली
मटमैली
रोशनी में
आँखें मूंदे
दर्द की उंगली थामे
मैं
पहुँच जाता हूँ
तुम तक
तुम तक
तुम तक
और
उस तक
न कोई है द्वंद
न कोई है तर्क
तुममें और उसमें
न कोई है फ़र्क
जाता हूँ सोने
भीग जाता है तकिया
उगता है सूरज
सब जाता है सूख
होते-होते शाम
कुछ आते हैं उग
कुछ उगाता हूँ मैं
हर शाम …
सिएटल 425-898-9325
8 सितम्बर 2009
Tuesday, September 8, 2009
हर शाम
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:02 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: 24 वर्ष का लेखा-जोखा, intense, new, relationship
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7 comments:
waah.............kya baat hai.........dard ki fasal ugaani har kisi ke baski baat nhi hai.
kabhi mere blog par aaiyega............dard ki fasal hi milegi.
http://vandana-zindagi.blogspot.com
http://redrose-vandana.blogspot.com
आँखें मूंदे
दर्द की उंगली थामे
मैं
पहुँच जाता हूँ
तुम तक
तुम तक
तुम तक
जब वहाँ पहुंच गयी तो दर्द की फसल तो अपने आप ही उग आती है चाहे आप ना भी उगाना चाहो बहुत खूबसूरत रचना है बधाई
वाह !!! लाजवाब !!!
गहन भावो की अतिसुन्दर अभिव्यक्ति....बहुत ही अच्छी लगी आपकी यह रचना...आभार.
सूरज के उगने के साथ आंसुओं का सूखना........वाह !!! बिम्ब प्रयोग लाजवाब है...
बहुत ही सुन्दर शब्द और भाव है जिन्हे पढकर एक सुकून सा मिला..........
अब आप कवि बन गए है। जो गहराई होनी चाहिये वह बात अब आ गैई । शुभ्कामनाए।
इस कविता से सबने अपने भीतर ही भीतर कुछ उगा महसूस किया होगा।
कविता की गभींरता ने छू लिया।
ििकरण राजपुरोिहत ििनितला
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