Tuesday, September 8, 2009

हर शाम

कुछ आते हैं उग
कुछ उगाता हूँ मैं
हर शाम
दर्द की फसल उगाता हूँ मैं

टेबल लैम्प की
पीली
मटमैली
रोशनी में
आँखें मूंदे
दर्द की उंगली थामे
मैं
पहुँच जाता हूँ
तुम तक
तुम तक
तुम तक
और
उस तक

न कोई है द्वंद
न कोई है तर्क
तुममें और उसमें
न कोई है फ़र्क

जाता हूँ सोने
भीग जाता है तकिया

उगता है सूरज
सब जाता है सूख

होते-होते शाम
कुछ आते हैं उग
कुछ उगाता हूँ मैं
हर शाम …

सिएटल 425-898-9325
8 सितम्बर 2009

इससे जुड़ीं अन्य प्रविष्ठियां भी पढ़ें


7 comments:

vandana gupta said...

waah.............kya baat hai.........dard ki fasal ugaani har kisi ke baski baat nhi hai.
kabhi mere blog par aaiyega............dard ki fasal hi milegi.
http://vandana-zindagi.blogspot.com
http://redrose-vandana.blogspot.com

निर्मला कपिला said...

आँखें मूंदे
दर्द की उंगली थामे
मैं
पहुँच जाता हूँ
तुम तक
तुम तक
तुम तक
जब वहाँ पहुंच गयी तो दर्द की फसल तो अपने आप ही उग आती है चाहे आप ना भी उगाना चाहो बहुत खूबसूरत रचना है बधाई

रंजना said...

वाह !!! लाजवाब !!!

गहन भावो की अतिसुन्दर अभिव्यक्ति....बहुत ही अच्छी लगी आपकी यह रचना...आभार.

रंजना said...

सूरज के उगने के साथ आंसुओं का सूखना........वाह !!! बिम्ब प्रयोग लाजवाब है...

ओम आर्य said...

बहुत ही सुन्दर शब्द और भाव है जिन्हे पढकर एक सुकून सा मिला..........

Anonymous said...

अब आप कवि बन गए है। जो गहराई होनी चाहिये वह बात अब आ गैई । शुभ्कामनाए।

किरण राजपुरोहित नितिला said...

इस कविता से सबने अपने भीतर ही भीतर कुछ उगा महसूस किया होगा।
कविता की गभींरता ने छू लिया।
ििकरण राजपुरोिहत ििनितला