मुझे आज भी याद है
शिमला के
सिसिल होटल के
सामने का गज़ीबो
जिसमें
स्कूल से आते वक्त
बारीश में भीगते हुए
हम घुसे थे दोनों
तुम्हारी मांग में
कुछ बूंदें
अटक गई थी
मैंने चाहा था छूना
लेकिन उन्हें छुआ नहीं था
मुझे आज भी याद है
उन बूंदों की चमक
उस मांग की महक
उन बालों का तनाव
ठंड का बढ़ना
सांसों का चलना
और
मेरा-तुम्हारा कुछ न कहना
हम चुप थे
लेकिन
अनभिज्ञ नहीं थे
या यूँ कह लो
कि अनभिज्ञ नहीं थे
इसीलिये चुप रहें थे
उस दिन तो
हम छतरी ले जाना भूल गए थे
लेकिन उस दिन के बाद से
हमने भूल के भी कभी
छतरी नहीं ली
बारीश की बूंदों का
तन से मिलन का
मज़ा ही कुछ और है
मुझे आज भी याद है ...
28 सितम्बर 2012
सिएटल । 513-341-6798
3 comments:
Beautiful.....ati sunder.
Beautiful.....ati sunder.
छतरी भूल जाना और फिर भूल कर भी छतरी न लेना - so sweet...
बहुत ही सुन्दर और प्यारी रचना.
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