Friday, September 28, 2012

बारीश की बूंदें


मुझे आज भी याद है
शिमला के
सिसिल होटल के
सामने का गज़ीबो
जिसमें
स्कूल से आते वक्त
बारीश में भीगते हुए
हम घुसे थे दोनों

तुम्हारी मांग में 
कुछ बूंदें
अटक गई थी

मैंने चाहा था छूना
लेकिन उन्हें छुआ नहीं था

मुझे आज भी याद है
उन बूंदों की चमक
उस मांग की महक
उन बालों का तनाव
ठंड का बढ़ना
सांसों का चलना
और
मेरा-तुम्हारा कुछ न कहना

हम चुप थे
लेकिन 
अनभिज्ञ नहीं थे

या यूँ कह लो
कि अनभिज्ञ नहीं थे
इसीलिये चुप रहें थे

उस दिन तो
हम छतरी ले जाना भूल गए थे
लेकिन उस दिन के बाद से
हमने भूल के भी कभी
छतरी नहीं ली

बारीश की बूंदों का
तन से मिलन का
मज़ा ही कुछ और है

मुझे आज भी याद है ...

28 सितम्बर 2012
सिएटल । 513-341-6798

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3 comments:

Neeta said...

Beautiful.....ati sunder.

Neeta said...

Beautiful.....ati sunder.

Anonymous said...

छतरी भूल जाना और फिर भूल कर भी छतरी न लेना - so sweet...

बहुत ही सुन्दर और प्यारी रचना.