हम सब
अपने-अपने
दायरों में क़ैद हैं
कोई उन्हें घर कहता है
तो कोई कटघरा
तो कोई यारी-दोस्ती की बंदिश
तो कोई धर्म को कोसता है
29 अक्टूबर 2017
सिएटल | 425-445-0827
हम सब
अपने-अपने
दायरों में क़ैद हैं
कोई उन्हें घर कहता है
तो कोई कटघरा
तो कोई यारी-दोस्ती की बंदिश
तो कोई धर्म को कोसता है
29 अक्टूबर 2017
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बिछड़ने का दर्द क्या होता है
यह मैं नहीं जानता
लेकिन
सूरज को ढलते वक़्त
पत्तों को गिरते वक़्त
लहूलुहान होते देखा है
चढ़ते सूरज का
खिलते वसंत का
रंग
दूधिया होता है
पीला होता है
दूध में हल्दी जैसा
27 अक्टूबर 2017
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Posted by Rahul Upadhyaya at 7:58 PM
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बुझता दीपक
बूझा के गया
भेद सारे जग के
बता के गया
जला था हवा से
बुझा भी हवा से
प्रेमियों की ज़िद को
जता के गया
बनाता है जो भी
मिटाता है वो ही
जो दिखता नहीं वो
दिखा के गया
न राख बची है
न परछाई कहीं है
धुएँ में सब कुछ
उड़ा के गया
तेल भी है, बाती भी
साबुत सारी माटी भी
बिन ज्योति सूना-सूना
समझा के गया
23 अक्टूबर 2017
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Posted by Rahul Upadhyaya at 7:46 PM
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उसे भूल जाऊँ
ये मुमकिन नहीं है
उसे याद आऊँ
ये मुमकिन नहीं है
सफ़र में मिलेंगे
चेहरे हज़ारों
उसे देख पाऊँ
ये मुमकिन नहीं है
सुनूँगा तराने
महफ़िलों में लाखों
उसे सुन पाऊँ
ये मुमकिन नहीं है
शब हो, सुबह हो
यहाँ हो, वहाँ हो
उसे दूर पाऊँ
ये मुमकिन नहीं है
न जाम है, न साक़ी
न सुराही कहीं है
होश में मैं आऊँ
ये मुमकिन नहीं है
9 अक्टूबर 2017
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जीत कर भी कौन जीता है
आज जीते
कल हारे
यूँही घटनाक्रम चलता है
कोई भी समाधान स्थायी नहीं है
समाधान स्थायी होते
तो दशावतार नहीं होते
यह तो हम ही हैं
जो उत्सव मनाने को
लालायित रहते हैं
हर जीत को याद करके
हर्षित होते हैं
यह हम पर निर्भर है कि
हम पूरा चित्र देखें
और स्थितप्रज्ञ रहें
या
छोटी-छोटी ख़ुशियाँ मनाते रहें
और दुखों पे आँसू बहाते रहें
विजयदशमी, 2017
30 सितम्बर 2017
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Posted by Rahul Upadhyaya at 6:33 AM
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उसूलों से इंसाँ बनता है
ईंटों से मकाँ बनता है
जब दिलवाले मिल जाए
ख़ूबसूरत समां बनता है
साक़ी पिलाता है
और हम पीते जाते हैं
अपने हाथों से
जाम कहाँ बनता है
हमारी-तुम्हारी समझ
बस इतनी है प्यारे
कि जो भी बनता है
सब यहाँ बनता है
ये चाँद, ये तारे
ये नक्षत्र सारे
न जाने क्या-क्या
तमाम वहाँ बनता है
न स्वर्ग है कोई
न नर्क है कोई
जैसा हो मन
वैसा जहाँ बनता है
26 सितम्बर 2017
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सामाँ फेंका तो कश्ती हल्की हो गई
तूफ़ाँ आया तो लगा ग़लती हो गई
क्या सही, क्या ग़लत, क्या पता
ख़ुश हुआ, जब बात मन की हो गई
सूरज हो, चाँद हो, या चराग हो कोई
जब भी आँख खोली, रोशनी हो गई
न फ़ार्म भरा, न फ़ीस दी, न फोन किया
बैठे-बिठाए ही ज़िन्दगी में भर्ती हो गई
जब स्कूल में था, तो सोचा न था कि
एक दिन लगेगा कि छुट्टी जल्दी हो गई
23 सितम्बर 2017
सिएटल | 425-445-0827
यादों की किताब
के पन्ने
कभी हवा खोल देती है
कभी मैं
कभी गुनगुनाता हूँ
कभी मुस्कुराता हूँ
कभी हड़बड़ा के
किताब बंद कर देता हूँ
किताब
पुरानी हो चली है
जर्जर हो गई है
जिल्द खुल रही है
सिलाई उधड़ रही है
पन्ने बिखर रहे हैं
कुछ खो गए हैं
कुछ फट गए हैं
सोचता हूँ
कुछ पन्ने सहेज लूँ
कविताओं में
23 सितम्बर 2017
सिएटल | 425-445-0827
क्यूँ मन्दिर बने
क्यूँ मस्जिद बने
बने तो बने
एक चौखट बने
जहाँ पे जाके
सबका सर झुके
कृतज्ञता में
विनम्रता से
भजन न हो
भोजन ही हो
किसी भूखे की
जहाँ भूख मिटे
अजान न हो
सुजान ही हो
किसी खोए को
जहाँ राह मिले
जहाँ किसीका
किसी पे न हाथ उठे
उठे तो उठे
कुछ देने के लिए
उठे तो उठे
कुछ पाने के लिए
कृतज्ञता में
विनम्रता से
क्यूँ कुछ बने
जो कल को टूटे ...
17 अगस्त 2017
सिएटल | 425-445-0827
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______,
चाँद कहूँ
तो उसमें भी दाग़ है
सूरज कहूँ
तो उसमें भी आग है
ऑक्सीजन कहूँ
तो पहाड़ों में कम हो जाती हो
परिजन कहूँ
तो अपेक्षाएँ बढ़ जातीं हैं
उपेक्षाएँ नज़र आतीं हैं
कुछ न कहूँ
तो सब समझ जाती हो
6 अगस्त 2017
सिएटल | 425-445-0827
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Posted by Rahul Upadhyaya at 4:48 PM
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Labels: relationship