Sunday, May 31, 2020

न्याय

न्याय यदि कोई एप होता
तो मैं कब का डाउनलोड कर चुका होता
और किसी को न बताता
ताकि किसी और को न मिल सके

किसी को पता लग भी जाता
तो उसे बरगलाता

यह भी कोई एप है?
हज़ारों इसमें ऐब हैं
निहायत ही अंधा है
न बाप 
न बेटा
न माँ 
न बहन
न प्रधान मंत्री
न चपरासी
न अमीर
न ग़रीब 
किसी में कोई फ़र्क़ ही नहीं 
सबको बराबर समझता है
सबको एक ही न्याय
भला ऐसा भी कहीं होता है
किसे चाहिए ऐसा न्याय?

और इसीलिए
आंदोलन होते हैं
होते रहते हैं

सबकी रोज़ी-रोटी चलती है
कोई ख़बर बनता है
कोई ख़बर बनाता है
कोई कविता लिखता है
कोई लेख
कोई फ़ोटो खींचता है
कोई चित्र बनाता है

उस न्याय की तलाश में
जो किसी को नहीं चाहिए

राहुल उपाध्याय । 31 मई 2020 । सिएटल

तो क्या मैं सब गटक जाऊँ?

कहते हैं
हर इंसान में भगवान है

है तो मैं क्या करूँ?

जैसे कि
हर तरल पदार्थ में पानी है
चाय
शराब
ज़हर
और भी न जाने क्या-क्या

तो क्या मैं सब गटक जाऊँ?

राहुल उपाध्याय । 31 मई 2020 । सिएटल

इतवारी पहेली: 2020/05/31

इतवारी पहेली:

जन्मतिथि हो तो बन जाता है ###
और कर्म लिखने में लगता है ## #

उपरोक्त दोनों पंक्तियों के अंतिम शब्द सुनने में एक जैसे ही लगते हैं। लेकिन जोड़-तोड़ कर लिखने में अर्थ बदल जाते हैं। हर # एक अक्षर है। हर % आधा अक्षर। 

जैसे कि:
हे हनुमान, राम, जानकी
रक्षा करो मेरी जान की

ऐसे कई और उदाहरण/पहेलियाँ हैं। जिन्हें आप यहाँ देख सकते हैं। 


आज की पहेली का हल आप मुझे भेज सकते हैं। या यहाँ लिख सकते हैं। 

सही उत्तर न आने पर मैं अगले रविवार - 7 जून को - उत्तर बता दूँगा। 

राहुल उपाध्याय । 31 मई 2020 । सिएटल
हल: आधार/आधा र

Friday, May 29, 2020

योगेश

हिन्दी फिल्म गीतों से मेरा इतना लगाव है कि जब भी कोई गीतकार, संगीतकार या गायक गुज़र जाता है तो लगता है मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा चला गया। 

आज गीतकार योगेश नहीं रहें। उनका गीत - कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे - कोविड की ख़बरों के साथ टीवी, रेडियो और सोशियल मीडिया पर बहुत चला। 

मुझे शब्दों से खेलना अच्छा लगता है। और शब्दों के विभिन्न प्रयोगों में बहुत रूचि है। उनके गीतों में शब्दों की बहुत अहमियत रहती थी। संगीतकारों ने उन्हें सुरीली धुनों से सँवारा भी बहुत ख़ूबसूरती से हैं। लेकिन उनके शब्द फिर भी दब नहीं जाते हैं। वे उभर कर आते हैं। 

आज मन उदास भी है, तो ख़ुशी भी है कि वे अपनी छोटी सी ज़िन्दगी को कितना बड़ा कर गए, इन मधुर गीतों को हमारे ज़हन में छोड़ कर। 

1. 
जिन्होने सजाएँ यहाँ मेले
सुख-दुख संग-संग झेले
वो ही चुनकर ख़ामोशी
यूँ चले जाएँ अकेले कहाँ

2. 
दिल जाने मेरे सारे भेद ये गहरे
हो गए कैसे मेरे सपने सुनहरे
ये मेरे सपने यही तो हैं अपने
मुझसे जुदा न होंगे इनके ये साये

3. 
कभी सुख, कभी दुख, यही ज़िंदगी है
ये पतझड़ का मौसम घड़ी दो घड़ी है
नये फूल कल फिर डगर में खिलेंगे

4. 
वही है डगर, वही है सफ़र
है नहीं साथ मेरे मगर
अब मेरा हमसफ़र
इधर-उधर ढूँढे नज़र 
कहाँ गईं शामें मदभरी
वो मेरे, मेरे वो दिन गये किधर

5. 
मौसम मिला वो कहीं एक दिन मुझको
मैने कहा रूको खेलो मेरे संग तुम
मौसम भला रुका जो वो हो गया गुम
मैने कहा अपनों से चलो 
तो वो साथ मेरे चल दिए
और ये कहा जीवन है
भाई मेरे भाई चलने के लिए

6. 
महफ़िल में कैसे कह दें किसी से,
दिल बंध रहा है किस अजनबी से
हाय करे अब क्या जतन
सुलग सुलग जाए मन

मैंने उपर उनके प्रसिद्ध गीतों के अंतरे ही दिए हैं। अक्सर संगीत और मुखड़े इतने हावी हो जाते हैं कि कुछ अंतरों के सौन्दर्य से हम अनभिज्ञ रह जाते हैं। 

पूरे गीत इस प्लेलिस्ट में सुने जा सकते हैं। 
https://Tinyurl.com/RahulYogesh 

राहुल उपाध्याय । 29 मई 2020 । सिएटल

फ़ोटो मेरा

किसी ने माँगा 
आज
फ़ोटो मेरा

लाख फ़ोटो में
एक भी न मिला
जो मैं दे पाता

किसी में थीं
माँ साथ मेरे
तो किसी में 
वो जाना-पहचाना
अनजान चेहरा 

किसी में संगी-साथी
तो किसी में फूल
तो किसी में टोपी

कहीं भी
मैं न था

राहुल उपाध्याय । 29 मई 2020 । सिएटल

Wednesday, May 27, 2020

डर

पहले 
लावारिस वस्तुओं से ख़तरा था
अब
एक-दूसरे से डर लगता है

डर स्वाभाविक है
डरना हमारे डी-एन-ए में है

लेकिन 
हम मिल-जुल कर 
विषम परिस्थितियों से लड़े

हमने मिल-जुल कर
खेत-खलिहान बनाएँ
गाँव बसाएँ
कारख़ाने खोले
दुकानें चलाईं

हम 
पशुओं से 
भिन्न हुए 
मिल-जुल कर

अब
जब मेल-जोल ही बन्द है
डर है कि कहीं हम पशु न बन जाए

राहुल उपाध्याय । 27 मई 2020 । सिएटल

Sunday, May 24, 2020

इतवारी पहेली: 2020/05/24

इतवारी पहेली:

सहारा कोई भी हो, हो तिनका # ##
कम हो जाती है बड़ी से बड़ी ###

उपरोक्त दोनों पंक्तियों के अंतिम शब्द सुनने में एक जैसे ही लगते हैं। लेकिन जोड़-तोड़ कर लिखने में अर्थ बदल जाते हैं। हर # एक अक्षर है। हर % आधा अक्षर। 

जैसे कि:
हे हनुमान, राम, जानकी
रक्षा करो मेरी जान की

ऐसे कई और उदाहरण/पहेलियाँ हैं। जिन्हें आप यहाँ देख सकते हैं। 


आज की पहेली का हल आप मुझे भेज सकते हैं। या यहाँ लिख सकते हैं। 

सही उत्तर न आने पर मैं अगले रविवार - 31 मई को - उत्तर बता दूँगा। 

राहुल उपाध्याय । 24 मई 2020 । सिएटल

पल में संक्रमण होएगा, हाथ धोएगा कब

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में संक्रमण होएगा, हाथ धोएगा कब

जात न पूछे आपकी, बड़ा निर्दयी ये रोग
जान ले इंसान की, जान ले सारे लोग

ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग
तेरा वायरस तुझ ही में है, जान सके तो जान

कोरोना आय संसार में, लूटे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती, सब से उसकी बैर

घर से कबहुँ ना निकलये, जो ज़रूरी काम न होय
कबहुँ वायरस घुस पड़े, पीर घनेरी होय

संक्रमित क्वारिंटिन सब करे, असंक्रमित करे न कोय
जो असंक्रमित क्वारिंटिन करे, तो संक्रमित काहे को होय 

धीरे-धीरे रे मना, धीरे लॉकडाउन अंत होय
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय 

बढ़ती भीड़ देख कर दिया 'राहुल' रोय
एक संक्रमित की छींक ही फूँक दे लाखों लोग

(कबीर से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 24 मई 2020 । सिएटल

Saturday, May 23, 2020

इम्तहान में जिन्हें मिले ज्यादा कल अंक थे

इम्तहान में जिन्हें मिले ज्यादा कल अंक थे
कौन जानता था कि वे मेरे माथे के कलंक थे

जिनके आगे-पीछे हम घूमते भटकते थे
राजा बेटा, राजा बेटा कहते नहीं थकते थे
आज वे कहते हैं कि माँ-बाप मेरे रंक थे

ये ठोकते हैं सलाम रोज़ किसी करोड़पति 'बिल' को
पर कभी भी चुका न सके मेरे डाक्टरों के बिल को
सफ़ाई में कहते हैं कि हाथ मेरे तंग थे

ऊँचा है ओहदा और अच्छा खासा कमाते हैं
खुशहाल नज़र मगर बहुत कम आते हैं
किस कदर ये हँसते थे जब घूमते नंग-धड़ंग थे

चार कमरे का घर है और तीस साल का कर्ज़
जिसकी गुलामी में बलि चढ़ा दिए अपने सारे फ़र्ज़
गुज़र ग़ई कई दीवाली पर कभी न वो मेरे संग थे

देख रहा हूँ रवैया इनका गिन-गिन कर महीनों से
कोई उम्मीद नहीं बची है अब इन करमहीनों से
जब ये घर से निकले थे तब ही सपने हुए भंग थे

जो देखते हैं बच्चे वही सीखते हैं बच्चे
मैं होता अगर अच्छा तो ये भी होते अच्छे
बुढ़ापे की लाठी में शायद बोए मैंने ही डंक थे

राहुल उपाध्याय । 2 मार्च 2008 । सिएटल


Tuesday, May 19, 2020

न छनछन पायल बजती है

न छनछन पायल बजती है
न छन-छन के धूप आती है
लेकिन स्वाद होंठों पर है प्रेम का ऐसा
कि बहार हर सू नज़र आती है

तू मेरी है या मैं तेरा
हो गया तर्क-वितर्क बहुतेरा
अब तो क्षण-क्षण वसुंधरा
मधुर गीत ही गाती है

हम साथ नहीं और साथ भी हैं
सुबह, शाम और रात भी हैं
कहने को कोई बात नहीं 
बिन कहे समझ आ जाती है

राहुल उपाध्याय । 19 मई 2020 । सिएटल

Monday, May 18, 2020

हमसे का भूल हुई जो यह सज़ा हमका मिली

सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें:

हमसे का भूल हुई जो यह सज़ा हमका मिली
अब तो चारों ही तरफ बंद है दुनिया की गली 

जान किसी की भी न लें हमने बस इतना चाहा 
माँस से दूर रहे दूध से बचना चाहा
उसका बदला ये मिला, उलटी छुरी हम पे चली

हम पे इलज़ाम यह है गाँव क्यों छोड़ दिया
क्यों बर्बादी ही की काहे न कुछ और किया
हमने विकास किया, बदले में बदनामी मिली

अब तो ईमान धरम की कोई कीमत ही नहीं 
जैसे पास आनेवालों की कोई ज़रुरत ही नहीं 
ऐसी दुनिया से तो दुनिया तेरी वीरान भली 

(मजरूह सुल्तानपुरी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 18 मई 2020 । सिएटल

Sunday, May 17, 2020

इतवारी पहेली: 2020/05/17

इतवारी पहेली:

दो गज की ## #
करें आप ## ##

उपरोक्त दोनों पंक्तियों के अंतिम शब्द सुनने में एक जैसे ही लगते हैं। लेकिन जोड़-तोड़ कर लिखने में अर्थ बदल जाते हैं। हर # एक अक्षर है। हर % आधा अक्षर। 

जैसे कि:
हे हनुमान, राम, जानकी
रक्षा करो मेरी जान की

ऐसे कई और उदाहरण/पहेलियाँ हैं। जिन्हें आप यहाँ देख सकते हैं। 


आज की पहेली का हल आप मुझे भेज सकते हैं। या यहाँ लिख सकते हैं। 

सही उत्तर न आने पर मैं अगले रविवार - 24 मई को - उत्तर बता दूँगा। 

राहुल उपाध्याय । 17 मई 2020 । सिएटल

हल: दूरी से / दूर इसे 

Saturday, May 16, 2020

मैं शायर तो नहीं, मगर ऐ कोरोना


सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें:

मैं शायर तो नहीं, मगर ऐ कोरोना
जब से जाना मैंने तुझको, मुझको शायरी आ गई
मैं आशिक तो नहीं, मगर ऐ कोरोना
जबसे जाना मैंने तुझको, मुझको ज़िन्दगी भा गई

बुखार का नाम मैंने सुना था मगर
बुखार क्या है, ये मुझको नहीं थी खबर
मैं तो उलझा रहा उलझनों की तरह
दोस्तों में रहा, दुश्मनों की तरह
मैं दुश्मन तो नहीं, मगर ऐ कोरोना
जबसे जाना मैंने तुझको, मुझको दुश्मनी आ गई

सोचता हूँ अगर मैं दुआ मांगता
हाथ अपने उठाकर मैं क्या मांगता
जबसे तुझसे नफ़रत मैं करने लगा
तबसे जैसे इबादत मैं करने लगा
मैं काफ़िर तो नहीं, मगर ऐ कोरोना
जबसे देखा मैंने तुझको, मुझको बंदगी आ गई

(आनन्द बक्षी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 12 मई 2020 । सिएटल

हाय हाय ये ज़ालिम कोरोना

बढ़ रही मुश्किल 
उस पे नाज़ुक है दिल, 
ये न जाना
हाय हाय ये ज़ालिम कोरोना

जो दिखे भाग लो
बस मेरी मान लो
कह के जाना
हाय हाय ये ज़ालिम कोरोना

जम के हाथों में साबुन लगाकर
नाक, होंठ और नज़रें बचाकर
घर पे ही रह गए
कहते ही रह गए
हम फ़साना
हाय हाय ये ज़ालिम कोरोना

कोई मेरे ये हालात देखे
होते दिल बर्बाद देखे
फूँक न जाए जिगर
कर दिया है ये घर
कैदखाना
हाय हाय ये ज़ालिम कोरोना

(मजरूह सुल्तानपुरी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 14 मई 2020 । सिएटल

जब भी ये दिल उदास होता है

जब भी ये दिल उदास होता है
एक और आर्डर पास होता है

जिन मुखौटों से थी मुझे सख़्त नफ़रत 
आज उन्हीं का बढ़-चढ़ कर प्रचार होता है

सामाजिक दूरी में ही जो समझे भलाई
ऐसा समाज क्या ख़ाक समाज होता है

सच में, सच ढूँढूँ भी तो मैं ढूँढूँ कहाँ
हर चेहरा कवर चढ़ी किताब होता है

किसी को देखना हो 'गर तो वाई-फ़ाई ज़रूरी है
असली चेहरा तो ज़ूम पे ही जनाब होता है

चलते-चलते हम कहाँ चले आए
इसका अंदाज़ा किसे आज होता है

हाथों में किसी का दामन होता तो अच्छा होता
नंगी लकीरों में एक-एक पल का हिसाब होता है

राहुल उपाध्याय । 15 मई 2020 । सिएटल

Friday, May 8, 2020

न खिड़कियाँ खुलतीं न दरवाज़े बन्द होते

दो दिन 
अपने ग़म में ऐसा डूबा
कि पता ही नहीं चला कि
कैसे कुछ लोग पटरी पर सोने के जुर्म में 
ट्रेन से कुचल दिए गए
और कैसे कुछ लोगों के लिए
साँस लेना
जानलेवा साबित हुआ

दुनिया ऐसी ही है
अपनी-अपनी ख़ुशियाँ 
अपने-अपने ग़म 

यदि दुनिया कर्मयोगी होती
तो सब एक होते हैं
सब स्थितप्रज्ञ होते
न ग़म होता न ख़ुशी 

विषमताएँ न होतीं
तो नीरसता ही हाथ आती

हाथ की चारों उँगलियाँ 
और अँगूठा 
एक जैसे होते 
तो न खिड़कियाँ खुलतीं
न दरवाज़े बन्द होते

राहुल उपाध्याय । 8 मई 2020 । सिएटल

Wednesday, May 6, 2020

बेरूखी घर कर जाएगी

अब जो कोई खेल खेलोगे
कोई राहगीर
गेंद उठाकर न देगा

अब जो कहीं घूमने जाओगे
कोई दूसरा
तुम्हारे कैमरे से
तुम्हारी फ़ोटो नहीं लेगा

अब जो घर से निकलोगे
तो बहुत ज़रूरी काम से ही निकलोगे

अब जो किसी से मिलोगे
तो किसी अनजान से ही मिलोगे

अब जो किसी का चेहरा देख लोगे
तो मुँह फेरने को जी करेगा

महामारी तो मर जाएगी
बेरूखी घर कर जाएगी

राहुल उपाध्याय । 6 मई 2020 । सिएटल