जब भी ये दिल उदास होता है
एक और आर्डर पास होता है
जिन मुखौटों से थी मुझे सख़्त नफ़रत
आज उन्हीं का बढ़-चढ़ कर प्रचार होता है
सामाजिक दूरी में ही जो समझे भलाई
ऐसा समाज क्या ख़ाक समाज होता है
सच में, सच ढूँढूँ भी तो मैं ढूँढूँ कहाँ
हर चेहरा कवर चढ़ी किताब होता है
किसी को देखना हो 'गर तो वाई-फ़ाई ज़रूरी है
असली चेहरा तो ज़ूम पे ही जनाब होता है
चलते-चलते हम कहाँ चले आए
इसका अंदाज़ा किसे आज होता है
हाथों में किसी का दामन होता तो अच्छा होता
नंगी लकीरों में एक-एक पल का हिसाब होता है
राहुल उपाध्याय । 15 मई 2020 । सिएटल
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