दो दिन
अपने ग़म में ऐसा डूबा
कि पता ही नहीं चला कि
कैसे कुछ लोग पटरी पर सोने के जुर्म में
ट्रेन से कुचल दिए गए
और कैसे कुछ लोगों के लिए
साँस लेना
जानलेवा साबित हुआ
दुनिया ऐसी ही है
अपनी-अपनी ख़ुशियाँ
अपने-अपने ग़म
यदि दुनिया कर्मयोगी होती
तो सब एक होते हैं
सब स्थितप्रज्ञ होते
न ग़म होता न ख़ुशी
विषमताएँ न होतीं
तो नीरसता ही हाथ आती
हाथ की चारों उँगलियाँ
और अँगूठा
एक जैसे होते
तो न खिड़कियाँ खुलतीं
न दरवाज़े बन्द होते
राहुल उपाध्याय । 8 मई 2020 । सिएटल
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