गौड़सन्स टाईम्स के एक लेख में, केंद्रीय हिंदी समिति के सदस्य, राहुल देव लिखते हैं:
"राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफ़ारिश है कि अंग्रेज़ी को पहली कक्षा से पढ़ाया जाए और तीसरी से दूसरे विषयों की पढ़ाई का माध्यम बनाया जाए। वह यह भी कहता है कि कक्षा और विद्यालय के बाहर भी अंग्रेज़ी सीखने के लिए प्रेरक, उपयुक्त माहौल बनाया जाए। हर कक्षा में इसके लिए पुस्तकें, मल्टीमीडिया उपकरण रखे जाएं, अंग्रेज़ी क्लब बनाए जाएं। देश के 40 लाख शिक्षकों को अंग्रेज़ी दक्ष बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं। छ: लाख नए अंग्रेज़ी शिक्षक तैयार किए जाएं। "
राहुल देव पूछते हैं कि जब "ज्ञान आयोग स्वयं मानता है कि अंग्रेज़ी जो प्रथम भाषा के रुप में प्रयोग करने वाले एक प्रतिशत हैं। बाकी 99 प्रतिशत को अंग्रेज़ी दक्ष बनाने में कितना धन लगेगा? क्या यह संभव है जबकि एक प्रतिशत की भाषा बनने में अंग्रेज़ी को 175 साल लग गए?"
लेकिन साथ ही यह शिकायत भी करते हैं कि -
"सारे समाज में अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं के बीच शक्ति और प्रतिष्ठा का जो संतुलन है उसे देखते हुए अगर पहली कक्षा से छात्रों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाया गया तो क्या वे अपनी भाषाओं को वैसी ही इज़्ज़त दे पाएंगे? आज ही से शुरु से अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ने जीने वाले बच्चे भारतीय भाषाओं का कैसा प्रयोग करते हैं, कितना महत्व देते हैं, अपनी परंपराओं, विरासत, सांस्कृति जड़ों से कितना जुड़े हैं, यह सबके सामने हैं।"
यह तो ऐसे हुआ कि जैसे चित भी मेरी पट भी मेरी! अगर अंग्रेज़ी 175 साल बाद सिर्फ़ एक प्रतिशत लोगो की प्रथम भाषा बन पाई हो तो फिर अंग्रेज़ी के खिलाफ़ इतना शोर शराबा क्यों?
मैं केंद्रीय विद्यालय का विद्यार्थी रहा हूँ, जहाँ आमतौर पर सारे विषय अंग्रेज़ी में ही पढ़ाए जाते हैं। जो छात्र सामाजिक अध्ययन हिंदी में पढ़ना चाहते हैं, वे हिंदी में पढ़ सकते हैं। लेकिन गणित और विज्ञान अंग्रेज़ी में ही पढ़ाए जाते हैं। इसे आप गरीब सरकारी कर्मचारियों का कान्वेंट स्कूल कह सकते हैं। प्राय: सारे छात्र अंग्रेज़ी में ही सारे विषय पढ़ते थे। साथ में हिंदी भी और संस्कृत भी। एक मैं ही अकेला था जिसने सामाजिक अध्ययन हिंदी में लेना तय किया। क्यों? क्योंकि मैं केंद्रीय विद्यालय में कक्षा आठ में दाखिल हुआ था। मेरी प्राथमिक शिक्षा मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में हुई थी। वहाँ, कक्षा छ: तक अंग्रेज़ी का एक अक्षर नहीं पढ़ाया जाता था। इस वजह से मेरी अंग्रेज़ी काफ़ी कमज़ोर थी।
सच तो यह है कि अंग्रेज़ी की बदौलत ही अच्छी नौकरी मिलती है, अच्छा वेतन मिलता है, उपर उठने के अवसर मिलते हैं। आज कम्प्यूटर पर, इंटरनेट पर यूनिकोड के सहारे हिंदी लिखना और पढ़ना आसान है, लेकिन फिर भी बिना अंग्रेज़ी के आप लंगड़ा कर ही चल सकते हैं। प्रोद्योगिकी, चिकित्सा, अभियांत्रिकी, विज्ञान, विधि के क्षेत्र में अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है।
आज हर परिवार जो इस काबिल है कि वो अपने बच्चों को अंग्रेज़ी में शिक्षा दिला सके, दिला रहा है। इसका मतलब साफ़ है कि जो गरीब है, जिनके पास साधन नहीं है, उनके बच्चे अंग्रेज़ी शिक्षा के अभाव में और गरीब होते जा रहे हैं; और ये क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि सरकार हस्तक्षेप न करे और हर जनसाधारण को शिक्षा का समान अवसर न दे। ज्ञान आयोग की सिफ़ारिश के मुताबिक अब हर सरकारी स्कूल केंद्रीय विद्यालय की पद्धति पर चलेगा। ये एक हर्ष का विषय है। केंद्रीय विद्यालय के कई विद्यार्थियों से मेरी मुलाकात होती रहती है और वे सब अपनी संस्कृति से उतने ही जुड़े हैं जितने कि अन्य भारतीय।
राहुल देव का एक सुझाव यह भी है कि
"सारा देश अगर अपनी भाषाओं को छोड़ कर वैश्वीकृत होने, महाशक्ति बनने, आर्थिक प्रगति के एकमात्र माध्यम के रुप में अंग्रेज़ी को अपनाने के लिए तैयार है तो एक जनमत संग्रह करा लिया जाए और अगर बहुमत अंग्रेज़ी के पक्ष में हो तो उसे ही राष्ट्रभाषा, राजभाषा, शिक्षा का प्रथम माध्यम बना दिया जाए।"
अच्छा सुझाव है। एक जनमत कश्मीर में भी हुआ था। आज तक उसको भुगत रहे हैं।
जनमत के बजाय आप स्वयं जाकर देख ले कि अंग्रेज़ी माध्यम वाले स्कूलों के आगे दाखिले के लिए कितनी लम्बी कतार है। सब समझ में आ जाएगा। ये तब जबकि इन स्कूलों की बहुत महंगी फ़ीस होती है।
इससे पहले कि आप ज्ञान आयोग की सिफ़ारिशो का विरोध करें, अंग्रेज़ी हटाओ के नारे लगाए, मेरा एक निवेदन है। पहले आप अंग्रेज़ी भूल कर दिखाए। कोशिश कर के देखें कि आप कितने दिन बिना अंग्रेज़ी के रह सकते हैं। सिर्फ़ बिना बोले ही नहीं - बिना समझे, बिना लिखें, बिना पढ़े, बिना सुने।
सिएटल,
17 सितम्बर 2008