Sunday, March 2, 2008

कलंक

इम्तहान में इन्हें मिले ज्यादा कल अंक थे
कौन जानता था कि ये मेरे माथे के कलंक थे

इनके ही आगे-पीछे हम घूमते भटकते थे
'राजा बेटा, राजा बेटा' कहते नहीं थकते थे
आज ये कहते हैं कि 'माँ-बाप मेरे रंक थे'
कौन जानता था …

ये ठोकते हैं सलाम रोज किसी करोड़पति 'बिल' को
पर कभी भी चुका न सके मेरे डाक्टरों के बिल को
सफ़ाई में कहते हैं कि 'हाथ मेरे तंग थे'
कौन जानता था …

उंचा हैं ओहदा और अच्छा खासा कमाते हैं
खुशहाल नज़र मगर बहुत ही कम आते हैं
किस कदर ये हंसते थे जब घूमते नंग-धड़ंग थे
कौन जानता था …

चार कमरे का घर है और तीस साल का कर्ज़
जिसकी गुलामी में बलि चड़ा दिए अपने सारे फ़र्ज़
गुज़र ग़ई कई दीवाली पर कभी न वो संग थे
कौन जानता था …

देख रहा हूं रवैया इनका गिन गिन कर महीनों से
कोई उम्मीद नहीं बची है अब इन करमहीनों से
जब ये घर से निकले थे तब ही सपने हुए भंग थे
कौन जानता था …

जो देखते हैं बच्चे वही सीखते हैं बच्चे
मैं होता अगर अच्छा तो होते ये भी अच्छे
बुढ़ापे की लाठी में शायद बोए मैंने ही डंक थे
कौन जानता था …

सिएटल,
2 मार्च २००८

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Glossary
कलंक = blemish
माथे = forehead
रंक = poor
तंग = tight, as in "budget is tight"
ओहदा = title, position
किस कदर = to what extent
संग = together
रवैया = behavior
करमहीन = good for nothing
भंग = broken
डंक = fangs

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5 comments:

Anonymous said...

बहुत ही खोफ़्नाक पर सच।

Anonymous said...

Rahul ji,

Very real...makes one think a lot.

Anonymous said...

Very, very nice, Rahul! Yeh poem ek dum hamare parents ki dil ki awaaz sunati hai.

Apurva said...

Really good one!!

renu ahuja said...

waah , zindgi key baut hi kareeb,
shabd , bhaavnaayen, sanjoyi bahut sateek,
ched gaye rag key ghaav jo baithey gherey me atyant they,
kaaun jaantaa hai ki wo hamaarey maathey key kalank they.
!!!!!!!!

Rahul ji aapki rachnaayen behad pasad aati hai , sundar sahity rachney key liye badhaayee.

regards
renu ahuja.