Tuesday, March 4, 2008

मगर … #2

मेरा घर मेरा मगर
कोई नहीं मेरा मगर

कर लू थोड़ा और सबर
बची नहीं ज़िंदगी मगर

माना जिन्हे हमसफ़र
जाते थे कहीं और मगर

नदी में पड़ते हैं भंवर
जाने किसे बुलाते मगर

गले से मय जाए उतर
नशा क्यूं चड़ जाए मगर?

समय करे सब बराबर
रात दिन बना के मगर

घड़ी के कांटों का अंतर
मिट के भी रहता मगर

पैसा पूजा आठों पहर
मोल नहीं वक़्त का मगर

वादे से जो जाते मुकर
ख़ुद अधूरे होते मगर

चिंता है न किसी का डर
बन गया फ़कीर मगर

सब के सब जाते सुधर
हम तुम न होते मगर

नक़्शा बना एक सुंदर
देश नहीं बनता मगर

अक्स तेरा मेरे अंदर
तू कहाँ रहता मगर?

तेरे-मेरे से हर समर
सब तो है अपना मगर
 
न वज़न है ना बहर
कहे ग़ज़ल राहुल मगर

सिएटल,
4 मार्च 2008

इससे जुड़ीं अन्य प्रविष्ठियां भी पढ़ें


0 comments: