देखता हूँ उसे रोज़
जाते हुए दफ़्तर
आते हुए घर
देखता हूँ उसे रोज़
लेकिन रुकता नहीं 
है कभी आँफ़िस की झंझट
तो कभी परिवार के बंधन
सोचता हूँ
एक दिन
उतरूँ अपनी गाड़ी से
चल के जाऊँ उस पगडंडी से
समेट लूँ उसकी खुशबू अपनी सांसों में
निहारूँ औंधें पड़े गगन को
लेकिन नहीं 
अभी थोड़ा और कमाना है
सुंदर सा घर बनाना है
अपनो को सताना है
गैरों को बताना है
देखता हूँ उसे रोज़
जाते हुए दफ़्तर
आते हुए घर
राहुल उपाध्याय | 28 मार्च 2008 | सिएटल
Friday, March 28, 2008
मिलने की अभिलाषा
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:50 PM
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Labels: intense, nature, relationship, TG, valentine
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1 comments:
Bahut pyaari kavita hai, Rahul.
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