सोचता हूँ तुम्हें थोड़ा और संवार दूँ
लेकिन डरता हूँ कहीं बिगड़ न जाओ तुम
मेरी नज़रों के सामने
पली-बढ़ी हो तुम
कल तक मेरे दिल में थी
आज मेरे सामने हो तुम
सोचता हूँ तुम्हें थोड़ा और संवार दूँ
लेकिन डरता हूँ कहीं बिगड़ न जाओ तुम
तुम्हें जी भर कर देखूँ
हाथ बढ़ा कर तुम्हें छू लूँ
तुम्हारे माथे पर बिंदी लगा दूँ
तुम्हारी शान में चार चाँद लगा दूँ
तुम्हारे कदमों में अपना नाम लिख दूँ
अपने होंठों से तुम्हारा रोम-रोम चूम लूँ
तुम्हें सर से पाँव तक आभूषणों से अलंकृत कर दूँ
सोचता हूँ तुम्हें थोड़ा और संवार दूँ
लेकिन डरता हूँ कहीं बिगड़ न जाओ तुम
जो दिल में है वो सब कह दूँ
तुम्हें अपने आगोश में ले कर सो जाऊँ
नींद खुलने पर तुम्हें अपने पास ही पाऊँ
जागते-सोते बस तुम्हें और तुम्हें ही पाऊँ
ख्वाबों में भी तुम आओ और मैं तुम्हें सजाता जाऊँ
मेरे दिल की धड़कनें कुछ तेज होगी
जब सब के सामने तुम आओगी
और हर एक का मन बहलाओगी
तब तुम मेरी नहीं रह जाओगी
लेकिन मैं तुम्हें याद करता रहूगा
और तुम्हें बार बार दोहराता रहूगा
कभी अकेले में
तो कभी महफ़िल में
लेकिन तुम्हें फिर कभी संवार न पाऊँगा
सोचता था तुम्हें थोड़ा और संवार दूँ
लेकिन डरता था कहीं बिगड़ न जाओ तुम
कह नहीं सकता
किसमें ज्यादा त्रासदी है
इसमें कि
तुम मेरे सामने हो
और मैं तुम्हें संवार नही सकता
क्यूंकि तुम अब किसी एक की नहीं हो
या फिर इसमें कि
दिल चीर कर एक और मसौदा निकालना
उसे अपने हाथों पालना-पोसना
उसे एक नई शक्ल देना
उसे कविता का नाम देना
और उसे ज़माने को सौंप देना
सोचता था तुम्हें थोड़ा और संवार दूँ
लेकिन डरता था कहीं बिगड़ न जाओ तुम
राहुल उपाध्याय | 14 मार्च 2008 | सिएटल
Friday, March 14, 2008
मेरे दिल की बात
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:49 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: 24 वर्ष का लेखा-जोखा, bio, relationship, TG, Why do I write?, world of poetry
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2 comments:
kavi aur kavita ke rishte ko bahut sundar tarah se kaha hai aapne, Rahul.
Hum, readers, ko bhi kavita padhte samay kavita mein sirf shabad aur vichaar hi nahin dekhne chahiye - uske saath aayee kavi ki feelings ko bhi respect deni chahiye.
Are Bhaiya, badi mushkil se padhee gayee. Agar aapki aakhree kee line na padhee hotee to maine aapa Blog padhna bund kar diya hota.Faiz kee yaad da dee, aapne to.
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