ब्रश बदल-बदल कर ब्रश कर रहा हूँ
नीरस-सपाट ज़िन्दगी में रंग भर रहा हूँ
नाख़ून भी तो बढ़ते नहीं
कि रोज़ काट लूँ
हमदर्द भी तो साथ नहीं
कि दर्द बाँट लूँ
ख़ुद ही कर्ता, ख़ुद ही हर्ता,
हर किरदार कर रहा हूँ
क्या करूँ, क्या ना करूँ
कुछ सूझता नहीं
समय है इतना मगर
कुछ सूझता नहीं
मीलों का है सफ़र और
ट्रैडमील पे चल रहा हूँ
सुबह हुई, शाम हुई
अब हुई रात है
व्हाट्सैप पर आपका
पल-पल का साथ है
कहना जो चाहता हूँ
कहने से डर रहा हूँ
राहुल उपाध्याय । 15 अप्रैल 2020 । सिएटल
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