Saturday, May 23, 2020

इम्तहान में जिन्हें मिले ज्यादा कल अंक थे

इम्तहान में जिन्हें मिले ज्यादा कल अंक थे
कौन जानता था कि वे मेरे माथे के कलंक थे

जिनके आगे-पीछे हम घूमते भटकते थे
राजा बेटा, राजा बेटा कहते नहीं थकते थे
आज वे कहते हैं कि माँ-बाप मेरे रंक थे

ये ठोकते हैं सलाम रोज़ किसी करोड़पति 'बिल' को
पर कभी भी चुका न सके मेरे डाक्टरों के बिल को
सफ़ाई में कहते हैं कि हाथ मेरे तंग थे

ऊँचा है ओहदा और अच्छा खासा कमाते हैं
खुशहाल नज़र मगर बहुत कम आते हैं
किस कदर ये हँसते थे जब घूमते नंग-धड़ंग थे

चार कमरे का घर है और तीस साल का कर्ज़
जिसकी गुलामी में बलि चढ़ा दिए अपने सारे फ़र्ज़
गुज़र ग़ई कई दीवाली पर कभी न वो मेरे संग थे

देख रहा हूँ रवैया इनका गिन-गिन कर महीनों से
कोई उम्मीद नहीं बची है अब इन करमहीनों से
जब ये घर से निकले थे तब ही सपने हुए भंग थे

जो देखते हैं बच्चे वही सीखते हैं बच्चे
मैं होता अगर अच्छा तो ये भी होते अच्छे
बुढ़ापे की लाठी में शायद बोए मैंने ही डंक थे

राहुल उपाध्याय । 2 मार्च 2008 । सिएटल


इससे जुड़ीं अन्य प्रविष्ठियां भी पढ़ें
relationship
intense


3 comments:

Dharni said...

वाह

Rakesh said...

राहुल जी अच्छी रचना

अनीता सैनी said...

ज़िंदगी की उधेड़ बुन का शानदार सृजन बहुत ही भावपूर्ण.
सादर